त्रेता की समयावधि
त्रेता की समयावधि:
त्रेता शब्द पढ़ते ही मन के भीतर त्रेता युग की
प्रतिच्छाया नज़र आने लगती है और तरह-तरह के सवालों के झंझावात पैदा होने लगते हैं,
आखिर ‘त्रेता युग’ कहते
किसे हैं?
गीता के अध्याय – श्लोक 17 में युग की परिभाषा का विस्तृत उल्लेख
मिलता है। जिसके अनुसार ‘सूक्ष्म काल’ को ‘परमाणु’ के नाम से जाना जाता है। उसके बाद उत्तरोत्तर बढ़ते हुए समय की शृंखला में
अणु, त्रेषरेणु, त्रुटि, वेद, लव, निमेष, क्षण, काष्ठा, नाडिका के
नाम से माना जाता है। फिर और आगे बढ़ने पर हम देखते हैं कि नाडिका से प्रहर,
प्रहर से दिन, पक्ष, मास,
अयन एवं वर्ष बनते हैं। वर्षों की समायावधि युग में बदलती है। एक चतुर्युग
में सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग और
कलियुग शामिल होता है, जिनकी अवधि वर्षों की ईकाई में क्रमशः
4800, 3600, 2400, 1200 होते हैं। समय
मापने की कहानी यहीं खत्म नहीं होती वरन् और आगे जाती है जिसके अनुसार एक मानव
वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के तुल्य होता है, 30 मानव वर्ष
देवताओं के महीने के तुल्य, 360 मानव वर्ष को देवताओं का 1
वर्ष कहा जाता है और देवताओं के 12000 वर्ष अथवा 43,20,000 मानव
वर्ष को ‘दिव्य युग/महायुग/चतुर्युग’
कहा जाता है। इस तरह सहस्र युग पर्यन्तम् अथवा युग सहस्रान्त का अर्थ एक हज़ार चतुर्युग
की अवधि वाला समय है। क्या इस आधार को वैज्ञानिक आधार माना जा सकता है? मुझे तो इस पर विशेष चर्चा नहीं करनी चाहिए। मगर ‘त्रेता’ शब्द से झंकृत समयावधि को जानने की उत्सुकता हमेशा मेरे मन में बनी रही।
उद्भ्रांतजी के इस महाकाव्य ने युग की परिभाषा खोजने के बहाने अपने अतीत काल का
अवलोकन कर सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक
तथा आध्यात्मिक पराकाष्ठा से संपन्न त्रेता युग की मुख्य धारा से जोड़कर आधुनिक
(कलियुग) की गतिविधियों में पारंस्परिक ताल-मेल तथा तुलनात्मक अध्ययन के लिए प्रेरित
किया, जब तक कि त्रेता युग के फ्लैशबैक में जाने के कोई
संतोषजनक ठोस आधार प्राप्त न हो जाए। प्रथम दृश्ट्या गीता में दिये गए युग की
परिभाषा का खंडन स्वामी दयान्द सरस्वती द्वारा रचित “ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका” के
“वेदोत्पत्ति विषय” के अंतर्गत देखने को स्पष्ट तरीके से मिलता है। जिनके अनुसार एक
वृंद, छियानवे करोड़, आठ लाख, बावन हज़ार नव सौ छहत्तर अर्थात् (1,96,08,52,976) वर्ष वेदों और जगत की उत्पत्ति को हो गए हैं और यह संवत् सतहत्तरवाँ (77वाँ) चल रहा है।
“जब स्वामी दयानन्द
सरस्वती से यह पूछा गया कि आपने यह कैसे निश्चित किया कि जगत की उत्पत्ति के इतने
वर्ष हो गए हैं?”
तब उन्होंने उत्तर दिया, “वर्तमान
सृष्टि सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है, इससे पूर्व छह मनवंतर
हो चुके हैं, स्वयम्भुव, स्वरोचिष,
औत्वभि, तामस, रैवत,
चाक्षुष। ये छह बीत गए है, सातवाँ वैवस्वत चल
रहा है और सवार्ण आदि सात मन्वंतर आगे आएंगे। कुल मिलाकर चौदह मनवंतर होते हैं और
एकहत्तर चतुयुर्गियों का नाम मनवंतर होता है। सो उनका गठन इस प्रकार से हैं कि
सत्तरह लाख, अट्ठाइस हज़ार वर्षों का नाम सतयुग (17,28,000),
बारह लाख छियानबे हज़ार वर्षों का नाम त्रेता (12,96,000), आठ लाख चौसठ हज़ार वर्षों का नाम द्वापर (8,64,000)
और चार लाख, बत्तीस हज़ार वर्षों का नाम कलियुग (4,32,000) रखा है।यही नहीं, आर्यों ने एक क्षण और निमेष से
लेकर एक वर्ष पर्यंत के काल को सूक्ष्म और स्थूल संज्ञाओं से बांधा है और इन चारों
युगों के तियालीस लाख, बीस हज़ार वर्ष होते हैं, जिनका चतुर्युगी (43,20,000) नाम है। एकहत्तर
चतुर्युगी के अर्थात् तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हज़ार वर्षों की एक मन्वंतर (30,62,0000) की संज्ञा है और ऐसे ऐसे छह मन्वंतर मिलकर अर्थात् एक अरब चौरासी करोड़ तीन
लाख बीस हज़ार वर्ष हुए और सातवें मन्वंतर के योग में यह अट्ठाइसवीं चतुर्युगी है।
इस चतुर्युग के कलियुग के चार हज़ार नौ सौ छिहत्तर (4976) वर्षों का भोग हो चुका है
और बाकी 4,27,024 का भोग होना बाकी है। जानना चाहिए कि 12,05,32,976
वर्ष वैवस्वत मनु के भोग हो चुके है और 18,61,27,024 वर्षों का भोग बाकी है।
इस तरह स्वामी दयानन्द सरस्वती जिस आकलन को समर्थन करते नजर आते
हैं, वह यहीं पर समाप्त नहीं होता वरन कुछ और परिभाषाओं को अपने साथ जोड़ते है।
जैसे कि एक हज़ार चतुर्युग का अर्थ एक ब्रह्मदिन और उतने ही चतुर्युग एक
ब्रह्मरात्रि होती है। इसलिए ईश्वर सृष्टि उत्पन्न कर एक हज़ार चतुर्युग पर्यंत
बनाकर रखता है और एक हज़ार चतुर्युग तक सृष्टि को मिटाकर रखता है, जिसे ब्रह्मरात्रि कह सकते हैं।
अगर आप उपरोक्त बातों में विश्वास नहीं करते हों, नहीं ही
सही। अब हम विज्ञान के दृष्टिकोण से त्रेता युग की अवधिकाल की खोज करेंगे, इसके लिए ज्योलोजिकल टाइम स्केल के अनुसार सृष्टिक्रम को दो EON में बांटा गया है। सबसे पुराना क्रिप्टोजोइक इओन (cryptozoic eon) जिसमें पृथ्वी निर्माण से छह सौ मिलियन वर्ष
की समयावधि शामिल है। जबकि दूसरा phanerozoic EON है जिसमें छह सौ मिलियन वर्ष से आज तक का समय लिया जाता है। क्रिप्टोजोइक
प्रिकेम्ब्रियन समय है जिसमें primitive plant, स्पांज प्रजाति तथा जेली फिश जैसे जानवरों का निर्माण हुआ। जबकि फनेरोज़ोइक
EON में तीन युग आते हैं, Paleozoic, Mesozoic और Cenozoic। अगर तीन युगों को पीरीयड में बांटा
जाए तो पेलियोजोइक में पर्मियन, पेंसिल्वानियन, मिसीसिपीयन, डेनोनियन, स्केलिरियन,
ओरडोविसियन, केब्रियन, तथा
मेसोजोइक युग में क्रिटेशियस, केम्ब्रियन तथा मेसोजोइक युग
में क्रिटेशियस, जुरैसिक तथा ट्राइसिक एवं सेनोजोइक में
क्वार्टसरी व टर्शरी आते है। इस विभाजन के अनुसार करो मेगनन मेन की उत्पत्ति सेनोजोइक
युग में होती है, जो आज से 60-65 मिलियन अर्थात् 600-500 लाख
वर्ष पूर्व की बात है। जबकि ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के आकलन से 1960 लाख वर्ष पहले
जगत और वेदों की उत्पत्ति हुई। अगर हम दोनों केलकुलेशनों का औसत अर्थात् 1280 लाख
वर्ष को आता है। इसके हिसाब से 1280-120=1160 लाख वर्ष पूर्व त्रेता का प्रतिपादन
हुआ था। जो कि प्राप्त साक्ष्यों के अनुरूप गलत ठहरता है, क्योंकि
शोध के अनुसार रामायण के बारे में 4000-5000 वर्ष पूर्व के प्रमाण प्राप्त होते हैं।
त्रेता पर कुछ लिखने से पूर्व मेरी जिज्ञासा त्रेता की कालावधि जानने की रही है,
ताकि तत्कालीन समाज के बारे में कुछ सोच विचार किया जा सके। अगर
विज्ञान की बात मानें तो रिचार्ड ओवरी की प्रसिद्ध पुस्तक “द कंप्लीट हिस्ट्री ऑफ
द वर्ल्ड” के अनुसार आधुनिक मनुष्य के पूर्वज होमीनीन की उत्पत्ति ग्लोबल कूलिंग
की वजह से 50-60 लाख वर्ष पहले परिवेश में परिवर्तन होने के कारण मांसाहारी व
सर्वाहारी प्राणियों के रूप में हुई। मनुष्य के प्राप्त जीवाश्मों पर के अध्ययन
अनुसार Austrolopthesius, Homohabills, Homoerectous, Homoheidal bergenus तथा Homosapian(Motera human) आदि के परिवर्तनों में लंबी समयावधि लगी। पाँच
मिलियन वर्ष से आधुनिक मनुष्य की खोपड़ियों में मस्तिष्क का आकार लगातार वृद्धि
करता नजर आ रहा है। Austrolopthecius मनुष्य में आधुनिक
मनुष्य के मस्तिष्क आकार का एक तिहाई होता था। और अगर यू देखें तो DNA के अध्ययन के अनुसार आधुनिक मानव यानि होमोसेपियन की उत्पत्ति अफ्रीका
में डेढ़-दो लाख वर्ष पूर्व हुई। यद्यपि उनकी उत्पत्ति और विस्तार के बारे में अभी
भी अनुसंधान कार्य शेष है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह कहा
जा सकता है कि 28 हजार साल पूर्व मनुष्य जाति के रूप में होमोसेपियन ने जन्म लेकर
विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली थी। और दस हजार वर्ष पूर्व मनुष्य ने विश्व
में कॉलोनी निर्माण का कार्य शुरु कर दिया था। अनेकों बर्फ युग की शृंखलाओं ने
मनुष्य जाति को विविध वातावरण में बदलाव सहन करने के लिए सक्षम बना दिया था,
मनुष्य ने शिकार करने के साथ-साथ खेती एवं पशुपालन करना सीख लिया
था। कृषि की इस उत्पत्ति को “निओलियिक रिवोल्यूशन” कहा जाता है।
विश्व इतिहास के अनुसार कृषि पूर्वी यूरोप से होते हुए मेडिटेरियन
कोस्ट तथा सेंट्रल यूरोप से होते हुए चार हजार ई.पू. तक ब्रिटेन में पहुँचकर वहाँ
से बाल्टिक यूरोपियन रशिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली।
भारत इतिहास की सबसे पुरानी सभ्यताओं का एक घर रहा है, जो सभ्यता
सिंधु नदी के किनारे पल्लवित हुई। सिंधु घाटी की संस्कृति तथा वैदिक संस्कृति ने
परवर्ती भारतीय समाज को विकास का आधार बनाकर मुख्य धार्मिक प्रणालियों में जैसे हिन्दू,
बौद्ध, जैन आदि को जन्म दिया। यद्यपि भारत के
उस इतिहास के बारे में बताना अत्यंत ही कठिन है, मगर
पुरातत्व विज्ञान के अनुसार तत्कालीन सामाजिक जीवन के बारे में यह अवश्य कहा जा
सकता है कि 1200 ई.पू. के बाद की शताब्दियों में वेदों का निरूपण हुआ होगा,
मगर 5वीं शताब्दी तक वेद लिखित रूप में सामने नहीं आए थे। इस तरह
गंगा के ऊपरी भागों में इण्डो आर्यन सेटलमेंट स्थापित हो रहे थे।
जवाहर लाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक “विश्व इतिहास की झलक” के
अनुसार भारत के प्रारंभिक इतिहास का
अध्ययन हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि आदि आर्य(इण्डो आर्यन) ने कभी भी
इतिहास लिखने में ध्यान नहीं दिया, मगर उन लोगों के रचे गए ग्रंथ वेद,
उपनिषद, रामायण, महाभारत
उनकी उत्पन्न कृतियाँ है। इन ग्रंथों के अध्ययन से हमें भले ही, अपने पूर्वजों के रीति-रिवाज, रहन-सहन और सोच-विचार
करने के ढंग का पता चलता है, मगर यह इतिहास नहीं है। संस्कृत
में वास्तविक इतिहास की पुस्तक कश्मीर के इतिहास पर है, लेकिन
वह बहुत पुरातन जमाने की है, उसका नाम है ‘राज तरंगिणी’।
इसमें कश्मीर के राजाओं का सिलसिलेवार हाल का वर्णन है और यह कल्हण की लिखी हुई
है।
इस जानकारी से हमारे मन में एक सवाल अवश्य उठता है कि क्या त्रेता
कालीन सभ्यता थी? क्या रामायण अथवा महाभारत के पात्र आर्यों के वंशज थे या किसी दूसरी
सभ्यता के पुरोधा थे यह भी तो हो सकता है हम उन पुराने लोगों के ठेठ वंशज हैं जो
उत्तर पश्चिम के पहाड़ी दर्रों से होकर उस लहलहाते हुए मैदान में आए जो कालांतर में
ब्रह्मवर्त, आर्यावर्त, भारतवर्ष तथा
हिंदुस्तान कहलाया।
क्या राम का तत्कालीन समाज हड़प्पा और मोहन-जो-दड़ो की सभ्यता का
परिचालक है अथवा इससे पूर्व का? क्या जिस युग में वाल्मीकि ने रामायण लिखी,
वह युग उपर्युक्त सभ्यता की उत्कृष्टता का द्योतक है? क्या रामराज्य से पूर्व वेदों की रचना हो चुकी थी? शायद
धीरे-धीरे इस धर्म में अश्वमेघ, पशुबलि, बहु-विवाह, औरतों पर अत्याचार जैसी कई कुरीतियों का
समावेश हो गया था।
सृष्टि रूपी नाटक के चार पट सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक सृष्टि- चक्र को चार बराबर भागो में बांटता है -- सतयुग,त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग I सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है I सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते है I और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में पृथ्वी-मंच पर एक "अदि सनातन देवी देवता धर्म वंश" की ही मनुष्यात्माओ का पार्ट होता है I और अन्य सभी धर्म-वंशो की आत्माए परमधाम में होती है I अत: इन दो युगों में केवल इन्ही दो वंशो की ही मनुष्यात्माये अपनी-अपनी पवित्रता की स्तागे के अनुसार नम्बरवार आती है इसलिए, इन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव वाले होते है I द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने से इब्राहीम द्वारा इस्लाम धर्म-वंश की, बुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की स्थापना होती है I अत: इन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य एक्टर्स है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है इसके अतिरिक्त,सन्यास धर्म के स्थापक नानक भी इस विश्व नाटक के मुख्य एक्टरो में से है I परन्तु फिर भी मुख्य रूप में पहले बताये गए चार धर्मो पर ही सारा विश्व नाटक आधारित है इस अनेक मत-मतान्तरो के कारण द्वापर युग तथा कलियुग की सृष्टि में द्वेत, लड़ाई झगडा तथा दुःख होता है Iकलियुग के अंत में, जब धर्म की आती ग्लानी हो जाती है, अर्थात विश्व का सबसे पहला " अदि सनातन देवी देवता धर्म" बहुत क्षीण हो जाता है और मनुष्य अत्यंत पतित हो जाते है, तब इस सृष्टि के रचयिता तथा निर्देशक परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में स्वयं अवतरित होते है I वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मुख-वंशी कन्या --" ब्रह्माकुमारी सरस्वती " तथा अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मानियो को रचते है और उन द्वारा पुन: सभी को अलौकिक माता-पिता के रूप में मिलते है तथा ज्ञान द्वारा उनकी मार्ग-प्रदर्शना करते है और उन्हें मुक्ति तथा जीवनमुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देते है I अत:प्रजपिता बह्मा तथा जगदम्बा सरस्वती, जिन्हें ही "एडम" अथवा "इव" अथवा "आदम और हव्वा" भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका है I क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है कलियुग के अंत और सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगम,अर्थात संगमयुग, जब परमात्मा अवतरित होते है, बहुत ही महत्वपूर्ण है I विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते है तब लगभग सभी आत्मा रूपी एक्टर अपने प्यारे देश, अर्थात मुक्तिधाम को वापस लौट जाते है और फिर सतयुग के आरंभ से "अदि सनातन देवी देवता धर्म" कि मुख्य मनुष्यात्माये इस सृष्टि-मंच पर आना शुरू कर देती है I फिर २५०० वर्ष के बाद, द्वापरयुग के प्रारंभ से इब्राहीम के इस्लाम घराने की आत्माए, फिर बौद्ध धर्म वंश की आत्माए, फिर ईसाई धर्म वंश की आत्माए अपने-अपने समय पर सृष्टि-मंच पर फिर आकर अपना-अपन अनादि-निश्चित पार्ट बजाते है Iऔर अपनी स्वर्णिम, रजत, ताम्र और लोह, चारो अवस्थाओ को पर करती है इस प्रकार, यह अनादि निश्चित सृष्टि-नाटक अनादि काल से हर ५००० वर्ष के बाद हुबहू पुनरावृत्त होता ही रहता है I
सृष्टि रूपी नाटक के चार पट सामने दिए गए चित्र में दिखाया गया है कि स्वस्तिक सृष्टि- चक्र को चार बराबर भागो में बांटता है -- सतयुग,त्रेतायुग , द्वापर और कलियुग I सृष्टि नाटक में हर एक आत्मा का एक निश्चित समय पर परमधाम से इस सृष्टि रूपी नाटक के मंच पर आती है I सबसे पहले सतयुग और त्रेतायुग के सुन्दर दृश्य सामने आते है I और इन दो युगों की सम्पूर्ण सुखपूर्ण सृष्टि में पृथ्वी-मंच पर एक "अदि सनातन देवी देवता धर्म वंश" की ही मनुष्यात्माओ का पार्ट होता है I और अन्य सभी धर्म-वंशो की आत्माए परमधाम में होती है I अत: इन दो युगों में केवल इन्ही दो वंशो की ही मनुष्यात्माये अपनी-अपनी पवित्रता की स्तागे के अनुसार नम्बरवार आती है इसलिए, इन दो युगों में सभी अद्वेत पुर निर्वैर स्वभाव वाले होते है I द्वापरयुग में इसी धर्म की रजोगुणी अवस्था हो जाने से इब्राहीम द्वारा इस्लाम धर्म-वंश की, बुद्ध द्वारा बौद्ध-धर्म वंश की और ईसा द्वारा ईसाई धर्म की स्थापना होती है I अत: इन चार मुख्य धर्म वंशो के पिता ही संसार के मुख्य एक्टर्स है और इन चार धर्म के शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है इसके अतिरिक्त,सन्यास धर्म के स्थापक नानक भी इस विश्व नाटक के मुख्य एक्टरो में से है I परन्तु फिर भी मुख्य रूप में पहले बताये गए चार धर्मो पर ही सारा विश्व नाटक आधारित है इस अनेक मत-मतान्तरो के कारण द्वापर युग तथा कलियुग की सृष्टि में द्वेत, लड़ाई झगडा तथा दुःख होता है Iकलियुग के अंत में, जब धर्म की आती ग्लानी हो जाती है, अर्थात विश्व का सबसे पहला " अदि सनातन देवी देवता धर्म" बहुत क्षीण हो जाता है और मनुष्य अत्यंत पतित हो जाते है, तब इस सृष्टि के रचयिता तथा निर्देशक परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में स्वयं अवतरित होते है I वे प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा मुख-वंशी कन्या --" ब्रह्माकुमारी सरस्वती " तथा अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मानियो को रचते है और उन द्वारा पुन: सभी को अलौकिक माता-पिता के रूप में मिलते है तथा ज्ञान द्वारा उनकी मार्ग-प्रदर्शना करते है और उन्हें मुक्ति तथा जीवनमुक्ति का ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार देते है I अत:प्रजपिता बह्मा तथा जगदम्बा सरस्वती, जिन्हें ही "एडम" अथवा "इव" अथवा "आदम और हव्वा" भी कहा जाता है इस सृष्टि नाटक के नायक और नायिका है I क्योंकि इन्ही द्वारा स्वयं परमपिता परमात्मा शिव पृथ्वी पर स्वर्ग स्थापन करते है कलियुग के अंत और सतयुग के आरंभ का यह छोटा सा संगम,अर्थात संगमयुग, जब परमात्मा अवतरित होते है, बहुत ही महत्वपूर्ण है I विश्व के इतिहास और भूगोल की पुनरावृत्ति चित्र में यह भी दिखाया गया है कि कलियुग के अंत में परमपिता परमात्मा शिव जब महादेव शंकर के द्वारा सृष्टि का महाविनाश करते है तब लगभग सभी आत्मा रूपी एक्टर अपने प्यारे देश, अर्थात मुक्तिधाम को वापस लौट जाते है और फिर सतयुग के आरंभ से "अदि सनातन देवी देवता धर्म" कि मुख्य मनुष्यात्माये इस सृष्टि-मंच पर आना शुरू कर देती है I फिर २५०० वर्ष के बाद, द्वापरयुग के प्रारंभ से इब्राहीम के इस्लाम घराने की आत्माए, फिर बौद्ध धर्म वंश की आत्माए, फिर ईसाई धर्म वंश की आत्माए अपने-अपने समय पर सृष्टि-मंच पर फिर आकर अपना-अपन अनादि-निश्चित पार्ट बजाते है Iऔर अपनी स्वर्णिम, रजत, ताम्र और लोह, चारो अवस्थाओ को पर करती है इस प्रकार, यह अनादि निश्चित सृष्टि-नाटक अनादि काल से हर ५००० वर्ष के बाद हुबहू पुनरावृत्त होता ही रहता है I
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