बारहवाँ सर्ग- उर्मिला
बारहवाँ
सर्ग-
उर्मिला
तेलुगू महिलाएँ अपने गीतों में रामायण की
वीर-गाथाओं पर कम बोलती हैं, बल्कि मानवीयों प्रगाढ़ संबंधों और भावनाओं को
विशेष महत्व देती हैं। उनके गानों में उर्मिला के भय का वर्णन है, जब कोई आदमी उसे उठाता है, तो वह उसे पहचान नहीं
पाती है, वनवास से लौटने के बाद लक्ष्मण द्वारा उर्मिला के
बालों में कंघी करने का भी वर्णन मिलता है।
त्रेता के बारहवें सर्ग ‘उर्मिला’ में कवि उद्भ्रांत ने उर्मिला की भावना, दर्द और
पीड़ा को केन्द्रबिन्दु बनाकर स्त्री-विमर्श के आदर्श पहलू की ओर ध्यान आकृष्ट करने
का प्रयास किया है। उर्मिला लक्ष्मण की पत्नी बनकर कितनी खुश थी और अपने आप को
सौभाग्यशाली मानती थी। जब राम को वनवास मिला तो उसकी बहन सीता ने उनके साथ जाने की
जिद की और जेठ राम ने उन्हें स्वीकृति दे दी। लक्ष्मण जब वन में जाने के लिए
उर्मिला के कक्ष में गए तो उर्मिला ने अपनी आँखों में निर्बल भाव नहीं आने दिया।
कवि ने उर्मिला की भावना का जिक्र करते हुए कहा कि वह भी लक्ष्मण के साथ वनवास
जाना चाहती थी। मगर लक्ष्मण ने यह कहते हुए उसके आग्रह को स्वीकार नहीं किया कि वह
राम और सीता की अच्छी तरह से सेवा नहीं कर पाएगा, वनवास के
दौरान। मगर इस बात का आश्वासन दिया कि चौदह वर्षों तक कोई भी नारी उसके सपनों में
आने का साहस नहीं कर पाएगी, उसके सिवाय क्योंकि उसे सपने
देखने का भी अवकाश नहीं मिलेगा।वह अपने भैया और भाभी के प्रति निष्ठापूर्वक
कर्तव्य निभा पाएगा। इस तरह उर्मिला वागयुद्ध में लक्ष्मण से हार गई और उर्मिला को
अयोध्या में छोड़कर लक्ष्मण राम के साथ वनवास में चले गए। इन चौदह सालों में एक-एक
घड़ी किस तरह उर्मिला को अनन्त काल की तरह लगी होगी, उस
अनिर्वचनीय व्यथा का अनुमान सीता ही कर सकती है, जब अपने
अपहरण के बाद लंका में अशोक वाटिका के नीचे बैठकर अपने पति राम को स्मरण करने के
बाद एक-एक पल बिताते समय उसकी मानसिक अवस्था उर्मिला की व्यथा को याद दिला सकती है।
उर्मिला उस भयानक काली रात्रि को कभी नहीं भूल सकती है, जब
जेठ भरत के अमोध बाण से पर्वत को ले जाते समय हनुमान मूर्च्छित हो कर जमीन पर गिर
पड़े थे और उसे पता चला था कि रावण पुत्र मेघनाद द्वारा छोड़ी गई अमोघ शक्ति ने उसके
पति लक्ष्मण को मूर्च्छित कर दिया था।
कालिदास, सच-सच
बतलाना,
इन्दुमति के मृत्यु शोक में
अज रोए थे या तुम रोए थे?
कालिदास सच-सच बतलाना।
इन्दुमति के मृत्यु शोक में
अज रोए थे या तुम रोए थे?
कालिदास सच-सच बतलाना।
नागार्जुन की उपरोक्त कविता ‘कालिदास’ के कालीदास की तरह उद्भ्रांत ने भी उर्मिला के दुःख को अपने भीतर आत्मसात
किया।
कवि के अनुसार त्रेता के स्त्री पात्रों में
सबसे अधिक शोक का सामना उर्मिला को करना पड़ा। उसके जीवन सर्वस्व उसके प्राणाधार
पति लक्ष्मण वन में थे। वह उनके दर्शन से, उनके कुशल समाचार से भी वंचित हो
गई थी। यदि सीता की भाँति वह भी वन में जाकर स्वामी की सेवा कर सकती तो उसे कुछ
संतोष रहता, किन्तु वह ऐसा नहीं कर सकती थी। क्योंकि उसके
स्वामी किसी के कहने से नहीं, वरन् स्वेच्छा से वन में गए थे, माता-पिता तुल्य भाई और भाभी की सेवा का शुभ उददेश्य लेकर। अगर वह साथ चली
जाती तो स्वामी के कर्तव्य पालन में बाधा बनती। उसके कारण अगर उसके स्वामी के धर्म
में कोई त्रुटि आ जाए तो वह कैसे बर्दाश्त कर सकती थी? इस
वजह से उर्मिला ने चौदह वर्षो तक विरह की भयंकर आग में झुलसना स्वीकार किया,
किन्तु पति के कर्तव्य पथ पर बाधा बनकर नहीं खड़ी हुई।
उर्मिला के इस विषाद को मैथिलीशरण गुप्त ने
अपने महाकाव्य ‘साकेत’ (साकेत अयोध्या का
पुराना नाम था, मगर एक अलग शहर होने का भी पता चलता है) में
प्रकट किया है, जो तुलसीदास के रामचरित मानस में नहीं दिखाया
गया है। रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने एक स्थान पर लिखा है “रामायण में किसी देवता ने
अपने को गर्व करके मनुष्य नहीं बनाया है, एक मनुष्य ही अपने
गुणों के कारण बढ़कर देवता बन गया हैं।’’ ‘साकेत’ में सीता ही उर्मिला को आत्मविश्वास की
शिक्षा देती हैं।
धनुष के टूटने से पहले ही सीता ने राम को मन
से वरण कर लिया है,
इसी पर उर्मिला को जीवन में पहली चिंता हुई। वह घबराकर कहती है –
प्रभु चाप जो न चढ़ा सकें – परन्तु सीता निश्चिन्त हैं। वे उससे कहती हैं –
“चढ़ता उनसे न चाप जो,
वह होते न समर्थ आप जो,
उठता यह मोह भी भला,
उनके ऊपर तो अचंचला?
दृढ़ प्रत्यय के बिना कहीं,
यह आत्मार्पण दिखता नहीं।’’
वह होते न समर्थ आप जो,
उठता यह मोह भी भला,
उनके ऊपर तो अचंचला?
दृढ़ प्रत्यय के बिना कहीं,
यह आत्मार्पण दिखता नहीं।’’
यही है आत्मविश्वास, जो भयानक
कहा जा सकता है। परन्तु उर्मिला ने उसकी शिक्षा पाई है और वह भी यह कहने को समर्थ
हुई है कि –
“यदि लोक धरे न मैं रही,
मुझको लोक धरे यही सही।’’
मुझको लोक धरे यही सही।’’
इस
दृढ़ प्रत्यय की समाप्ति यहीं नहीं हो जाती। अयोध्या में सुना जाता है कि लक्ष्मण
को शक्ति लगी है और भरत की ओर से उर्मिला को शत्रुघ्न सांत्वना देते है -
“भाभी, भाभी, सुनो, चार दिन तुम सब सहना,
मैं लक्ष्मण-पथ-साथी आर्य का है यह कहना।”
मैं लक्ष्मण-पथ-साथी आर्य का है यह कहना।”
इस
पर उर्मिला उत्तर देती है –
“देवर, तुम निश्चिन्त रहो, मै कब रोती हूँ,
किन्तु जानती नहीं, जागती या सोती हूँ।
जो हो, आँसू छोड़ आज प्रत्यय पीती हूँ;
जीते हैं वे वहाँ, यहाँ जब मैं जाती हूँ।"
किन्तु जानती नहीं, जागती या सोती हूँ।
जो हो, आँसू छोड़ आज प्रत्यय पीती हूँ;
जीते हैं वे वहाँ, यहाँ जब मैं जाती हूँ।"
सीता के उस विश्वास के समान ही यह दृढ़ है, परंतु
मेरा हृदय भीत न होकर स्फीत होता है। इसीलिए सीता राम के समीप मुझे जो भय
लगता है, वह उर्मिला और लक्ष्मण के समीप नहीं।
उर्मिला के विषाद में उसका यह विश्वास डूब
नहीं गया। यदि अनुकरण करने वालों से ही अनुकरणीय की सार्थकता होती है। तो इसी आत्मविश्वास
के अनुकरण के लिये ‘साकेत’ में उर्मिला का एक विशेष स्थान होना चाहिए।
परंतु यदि हम उसे लेंगे, तो हमे उसका विषाद भी लेना पड़ेगा।
डॉ॰ आनंद प्रकाश दीक्षित ने अपनी पुस्तक “त्रेता एक
अन्तर्यात्रा” के अन्तर्गत इस सर्ग की कमी की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है कि
इस अंतिम बिन्दु की ओर आकर पतिप्राणा विरहिणी उर्मिला की कथा भी चूक गई। पुनर्मिलन
की घड़ियों का वर्णन करने की सुधि ही कवि को नहीं रही। लंका से अयोध्या लौटने के
अवसर की स्थितियों का वह वर्णन ही नहीं करता। शायद इसलिए कि उस अवसर का मुख्य
संबंध भरत-मिलाप और प्रजा से है और प्रस्तुत काव्य में पुरुष स्वतन्त्र पात्र नहीं
है।
बुद्धारेड्डी के ‘रंगनाथ
रामायण’ के अनुसार उर्मिला चौदह साल तक लगातार सोती रही और
लक्ष्मण चौदह साल तक जागते रहे। कहानी के अनुसार निद्रा देवी ने लक्ष्मण को सोने
के लिए निवेदन किया तो उन्होंने कहा कि अगर मैं सोऊँगा तो भैया राम और भाभी सीता
की रक्षा कौन करेगा? इसलिए उन्होंने निद्रा देवी से
प्रार्थना की कि वह अयोध्या चली जाए और उसके हिस्से की नींद बनकर उर्मिला को आ जाए।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने वाल्मिकी की उर्मिला
के योगदान की उपेक्षा करने के लिए आलोचना की है और मैथली शरण गुप्त को अपनी रामायण
‘साकेत’ में उचित स्थान देने के लिए प्रेरित किया था। कई कवियों को अपने
पति द्वारा बड़े भाई की सेवा के लिए अपनी पत्नी को त्याग देना आश्चर्य चकित कर देता
है। उनके अनुसार भारतीय नारी की अवस्था अपने पति के परिवार की सेवा के सिवाय कुछ
भी नहीं था। भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप परिवार के समक्ष किसी व्यक्ति
विशेष की अवस्था गौण है। वैयक्तिकता एक संन्यास है, भले ही
गृहस्थ क्यों न हो, गृहस्थी एक बंधन है, उन लोगों के लिए जो मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं। रामायण में इस बन्धन को
एक दूसरे की संवेदना के रूप में उभारकर प्रस्तुत किया है। दूसरे शब्दों में
संन्यासी वह है जो दूसरे की भूख से अलग–अलग है। सही अर्थों में उर्मिला अपने त्याग
से वंश की कालिमा को मिटा देती है। अपने अतुलित कुल में जो कलंक प्रकट हुआ था,
उसे उस कुल बाला ने चक्षु-सलिल से धो डाला। राम वनगमन दशरथ के कुल
में एक कलकिंत प्रसंग है। उर्मिला का पति लक्ष्मण, राम के
साथ वन जाता है। यह एक उदात्त भाव है, परंतु इस उदात्त भाव
के पीछे उर्मिला का त्याग है। उर्मिला को पति का वियोग सहना पड़ता है। वह अपने
आत्म-ज्ञान को विस्तृत कर देती है। वह प्रिय के अनुराग को अपने जीवन को जीने का स्रोत
समझती है। उसमें समर्पण और निष्ठा है। वह आरती की तरह जलकर भी सुगंध बिखेरती है।
लक्ष्मण जब उर्मिला से मिलने उसकी कुटिया में प्रवेश करते है, तब उन्हें मात्र उर्मिला की छाया रेखा ही दिखाई पड़ती है। उर्मिला का मानना
है कि नारी जीवन के लिए बन्धन नहीं है। उसमें परिवार और कुल की मर्यादा की रक्षा
के लिए आत्म-बलिदान करने की अपूर्व क्षमता होती है। उर्मिला और लक्ष्मण के आगे तो
राम के माता-पिता की आज्ञा से राज्य छोड़कर वनवास स्वीकार करने का गौरव भी फीका है।
“लक्ष्मण, तुम हो
तपस्पृही,
मैं वन में भी रही गृही।
वनवासी है निर्मोही,
हुए वस्तुतः तुम दो ही।”
मैं वन में भी रही गृही।
वनवासी है निर्मोही,
हुए वस्तुतः तुम दो ही।”
उर्मिला के विरह ने उसमें करुणा का जो संचार
किया वह मानव की अमूल्य निधि है। उसकी करुणा केवल मनुष्य के प्रति ही नहीं रहती वह
समस्त जीवधारियों के प्रति करुणा है। मकड़ी जैसे तुच्छ जीव के प्रति भी उसकी कोमल
भावना है।
“सखि, न हटा मकड़ी को, आई है वह सहानुभूतिवश।
जालगता में भी तो, हम दोनों की यहीं समान दशा॥”
जालगता में भी तो, हम दोनों की यहीं समान दशा॥”
करुणा को प्रत्यक्षतः संबोधित करके गुप्तजी
ने उसका महत्व और भी बढ़ा दिया है।
वाल्मीकि को राम से कहीं अधिक ‘साकेत’ की
उर्मिला मुदित मना है। यद्यपि यह प्रिय–वियोग में विदग्ध है, तथापि वह समग्र सृष्टि की मंगल कामना के लिए चिंतित है। अपने दुःख में भी
दूसरों के सुख की चिंता उसकी मुनि वृत्ति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। :-
“तरसूँ मुझ-सी मैं ही, सरसे-हरसे-हँसे
प्रकृति प्यारी,
सबको सुख होगा, तो मेरी भी आएगी बारी।”
सबको सुख होगा, तो मेरी भी आएगी बारी।”
उर्मिला भीतर से कितनी विदग्ध क्यों न हो, पर बाहर
से सामाजिक जीवन में वह हरी-हरी ही रहती है। मुदित ही रहती है।
लक्ष्मण द्वारा कैकेयी के साथ अशिष्टता का
व्यवहार करने पर वह लक्ष्मण को नीति पथ पर ले आती है। यही कारण है कि वह वन में
जरा भी अनैतिक नहीं होते। वहाँ वह आत्म-संयम, इंद्रिय-निग्रह, सेवा और त्याग की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं। मेघनाद से युद्ध करते समय वह
अपनी इसी नैतिकता की दुहाई देकर वार करते है :-
“यदि मैंने निज वधू उर्मिला को ही
माना,
तो बस अब तू संभल बाण यह मेरा छूटा,
रावण का यह पाप पूर्ण हाटक घट फूटा।” (साकेत – द्वादश सर्ग)
तो बस अब तू संभल बाण यह मेरा छूटा,
रावण का यह पाप पूर्ण हाटक घट फूटा।” (साकेत – द्वादश सर्ग)
उर्मिला के दो पुत्र हुए, अंगद और
चन्द्रकेतु। उन दोनों को कारूपथ नामक देश का प्रभुत्व प्राप्त हुआ। अंगद ने
अंगड़िया नमक राजधानी बनाई और चन्द्रकेतु ने चंद्रकांत नामक नगर बसाया।
यह भी कहा जाता है कि जब राम ने सीता को
जंगल में छोड़ दिया था,
तब उसका विरोध करने वाली उर्मिला ही थी। उसने अपने पति लक्ष्मण को
राम की आज्ञा का अनुपालन कर सीता को जंगल में छोड़ने के लिए फटकार भी लगाई थी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार भारतीय साहित्य
की विस्मृत नायिकाओं में से उर्मिला को एक मानते हैं। तेलुगू साहित्य में उर्मिला
की भूमिका सीता की तरह ही महत्वपूर्ण मानी जाती है। यहाँ तक कि उन्हें आदर्श पत्नी
का दर्जा दिया जाता है और तेलुगू भाषा के रामायण में उर्मिला देवी की निद्रा पर
विशेष तौर पर गायन होता है। कवि– कने की पुस्तक “सीता’स
सिस्टर (sita’s sister)” में लेजेंड्री (legendry) उर्मिला की मिथकीय कहानी की विस्तृत पुनरावृत्ति हुई है।
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