Posts

Showing posts from July, 2017

छब्बीसवाँ सर्ग- उपसंहार - कलि

छब्बीसवाँ सर्ग- उपसंहार - कलि       कवि ने त्रेता काव्य का ‘ उपसंहार ’ कविता के रूप में किया है , कि सत्ययुग से प्रारम्भ हुई मानवीय विकास की यात्रा त्रेता युग में आते-आते अपनी निकृष्टतम परिणति अथवा उच्चतम सोपान तक पहुँची , यह कहा नहीं जा सकता। मगर त्रेता ने सत्य की कठिन परीक्षा लेते हुए अग्नि देव की लपटों में उसे तपाकर संतति के रूप में द्वापर को जन्म दिया। जिसने सत्य असत्य की महाभारत को देखा और असत्य को जीत कर अटटहास करते एवं सत्य को लहू-लुहान होते देखा। पहली बार रक्त-सम्बन्ध क्रय-विक्रय के सामान बने और मनुस्मृति का तीसरा वर्ण वैश्य संस्कृति के रूप में चारों दिशाओं में पाँव पसारने लगा। काल का सुदर्शन चक्र वायुवेग से चलता रहा। द्वापर के अंत में काल के व्याघ्र द्वारा कृष्ण के सुकोमल तलवे को बेधते ही कलि का प्रादुभाव होता है अर्थात कलि युग में ईश्वर की मृत्यु होने के साथ-साथ भयानक नर-संहार , नारी लज्जा का हरण , पिता द्वारा पुत्री पर यौन आक्रमण , काम , क्रोध , लोभ , मोह , मत्सर की दुष्प्रवृत्तियाँ इस युग के प्रभाव से ही दिखने लगी। ब्राह्मण , वैश्य , क्षत्रिय ने शासन की बागडोर अपने

पच्चीसवाँ सर्ग - मैं जननी शम्बूक की

पच्चीसवाँ सर्ग - मैं जननी शम्बूक की       अधिकांश पाठकों को शम्बूक के बारे में जानकारी नहीं है। शम्बूक रामकथा का एक काला अध्याय है। जो तत्कालीन समाज की जाति-प्रथा पर सवाल उठाता है कि अयोध्या के महाराज रामचन्द्र के आदि पुरखे स्वायंभुव-मनु ने मनुसंहिता लिखी और उसके अनुसार समाज-रूपी पुरुष का मुख ब्राहमण , हाथ क्षत्रिय , उदर वैश्य और जांघ शूद्र है। ब्राह्मणों के कर्म में वेदाध्ययन , तपश्चर्या , राजदरबारों के कारोबार , पंडिताई और दक्षिणा लेकर जीवन यापन करना , क्षत्रियों को राजा के हित में तलवार उठाना तथा वैश्य को व्यापार एवं शूद्र को समाज की गंदगी साफ करने का निर्देश दिया गया था। शम्बूक की माँ शूद्र थी। वह ऊँची जातियों के साथ बैठ नहीं सकती थी , वैवाहिक संबंध तो दूर की बात , साथ में बैठकर भोजन करने का भी अधिकार नहीं था , मंदिर जाने में भी प्रतिबंध था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य दूर-दूर से खड़े होकर बातें करते हैं। तथा अस्पृश्यता तो इतनी भयानक थी कि उनके लिए पानी की व्यवस्था भी अलग से की जाती थी। इस तरह का सामाजिक विभाजन देखकर दस ग्यारह वर्षीय शम्बूक सदियों से चली आ रही भेद-भाव की रीति पर

चौबीसवाँ सर्ग- धोबिन

चौबीसवाँ सर्ग- धोबिन       कवि उद्भ्रांत ने इस पात्र की मौलिक कल्पना की है।धोबिन एक जातिवाचक शब्द है , जिसका अर्थ है राम के समय हिन्दू धर्म में अनेकानेक जातियाँ व्याप्त थी। इस सर्ग में हिन्दी भाषा का प्रयोग न करके बृज भाषा का प्रयोग ज्यादा हुआ है। जिसके पीछे उनका उद्देशय तत्कालीन समाज की लोक प्रचलित भाषाओं को आगे लाने के साथ-साथ उस पात्र को सशक्त बनाने का प्रयास किया है।       अनेक लोगों के मैले-कुचेले कपड़े लेकर धोबिन सरयू नदी के घाट पर उन्हें धोती और नदी में सूरज भगवान की प्रतिमा देखकर ईश्वर की आराधना करती है। उसका पति दिन भर मटरगश्ती करता व गलत दोस्तों के साथ चौपड़ , जुआ खेलना या फिर पूरे दिन निठ्ठला होकर बैठना , रात में खूब दारू पीना , घर में पत्नी से मार-पीट और गालियों की बरसात करना आदि सारे काम थे। यह कैसा राम राज्य था , जहाँ औरत की कमाई पर पति गुलछर्रे उड़ाता हो ? यह सोचकर धोबिन ने राम के जनता दरबार में जाकर अपनी दुःख व्यथा को रखने का निर्णय लिया कि अगर कोई मेरे आदमी की बुद्धि ठीक कर ले तो उससे ज्यादा उसे और कुछ नहीं चाहिए। धोबिन ने सोचा कि अगर वह घर में एक पहर खाना नहीं बना

तेइसवाँ सर्ग- सुलोचना

तेइसवाँ सर्ग- सुलोचना       सुलोचना रामायण का एक उपेक्षित पात्र है जिसके बारे में जन-सामान्य को बहुत कम जानकारी है। त्रेता के माध्यम से कवि उद्भ्रांत ने सुलोचना के चित्रांकन में कोई कमी नहीं छोड़ी है। सुलोचना एक ऋषिकन्या थी , शिवभक्त थी , सदैव शिव आराधना में लगी रहती थी। एक दिन शिव मंदिर में एक सुंदर सुगठित शरीर बाले तेजस्वी युवक को देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गई। उसे यह पता नहीं था कि वह रावण का पुत्र मेघनाद है। मेघनाद से प्रथम प्रेम दृष्टि शीघ्र ही विवाह में बदल गई। उसके जादू भरे सम्मोहक लोचनों को देखकर मेघनाद ने उसका नाम सुंदर लोचन वाली अर्थात सुलोचना रखा। ससुराल में माँ मंदोदरी सदैव उसकी कपूर के दिए से आरती उतारती ताकि उस पर किसी की भी कुदृष्टि न पड़े। जब सुलोचना को रावण द्वारा सीता का अपहरण , रामदूत हनुमान द्वारा अक्षय का संहार और उसके बाद मेघनाद द्वारा अशोक वन में हनुमान से लड़ाई करने के लिए पहुँचना आदि घटना क्रम याद आते तो उसका रोम-रोम काँप उठता था और “शिव- स्तोत्र ” पढ़ना शुरू कर देती थी। जब सुलोचना ने सोने की लंका को आग की लपेटों में धू-धू जलते देखा तो उसे किसी अनहोनी घटना की आशंक

बाईसवाँ सर्ग- मन्दोदरी

बाईसवाँ सर्ग- मन्दोदरी       कवि उद्भ्रांत ने मन्दोदरी के चित्रांकन में विशेष ध्यान रखा है कि त्रेता की मुख्य पात्र सीता की तरह मन्दोदरी का चरित्र भी काफी उज्ज्वल रहा है।कवि के अनुसार मन्दोदरी के पिता ‘ मय’ ने जब उसकी माता को मन्दोदरी के विवाह के बारे में बताया कि ऋषि पुलस्त्य के वंश के ऋषि विश्रवा के सबसे बड़े पुत्र रावण से तय हुआ है , तो वह फूली नहीं समायी। मन्दोदरी ने रावण के पराक्रम की अनेक गाथाएँ सुन रखी थीं। रावण जितना सुंदर , बलिष्ठ , परम पराक्रमी , विद्वान , ज्ञानी था, उतना ही वह महादेव का अनन्य भक्त भी था। मन्दोदरी के नामकरण के बारे में अपनी चिर-परिचित शैली के तहत कवि उद्भ्रांत कहते हैं कि जन्म लेने के बाद माँ का स्तनपान अधिक नहीं करने के कारण उसका नाम मन्दोदरी रखा गया। वह अल्पभोजी भी थी और अल्पभाषी भी। पुरुष-सत्तात्मक समाज नारी के मितभाषी और मितभोजी होने की अपेक्षा सदैव करता है। उसके अनुसार अगर नारी ज्यादा बोलेगी तो वाचाल कही जाएगी और उसे कोई पसंद नहीं करेगा और अगर ज्यादा भोजन करेगी तो मांस-मज्जा बढ़ने के साथ-साथ पृथुलकाय हो जाएगी , तो बेडौल शरीर देखकर वैवाहिक संबंधों में

इक्कीसवाँ सर्ग- त्रिजटा

इक्कीसवाँ सर्ग- त्रिजटा       लंका के राजमहल में लाखों स्वामी भक्त दास–दासियाँ थीं। मगर एक दासी बिलकुल ही अलग-अलग थी , जिसे कभी भी पुरस्कार पाने की लालच में न तो मिथ्या सम्भाषण करने की आदत थी और न ही किसी प्रकार के चौर्य–कर्म में लिप्त रहने की इच्छा। कवि उद्भ्रांत के अनुसार त्रिजटा का जीवन सादगी भरा था। जो कुछ मिलता था उसी में संतुष्ट रहने वाला था। वह अन्य दासियों की तुलना में कभी भी अपने साजो-शृंगार में रुचि नहीं रखती थी। इस वजह से केश बढ़कर किशोरावस्था के पूर्व ही जटाओं का रूप लेने लगे , वह भी एक नहीं बल्कि तीन-तीन। कवि की कल्पना के अनुसार इन तीन जटाओं को देखकर लोगों ने शायद इस दासी को संन्यासिनी समझकर इसका नाम त्रिजटा रख दिया होगा। यही नहीं कवि अपनी कल्पना को और विस्तार देता है और त्रिजटा के मन को तीन भागों में बांटता है- पहला मन रावण के प्रति स्वामी भक्ति का , दूसरा मन मन्दोदरी के प्रति आदर श्रद्धा वाला और तीसरा जंगल के सभी जीव जन्तुओं के प्रति प्रेम और करुणा से भरा हुआ संवेदनशील भाव वाला। कवि त्रिजटा के चरित्र की व्याख्या करने से पूर्व रावण के चरित्र पर भी प्रकाश डालते हैं। एक

बीसवाँ सर्ग- लंकिनी

बीसवाँ सर्ग- लंकिनी       इस सर्ग में कवि उद्भ्रांत ने लंकिनी का परिचय अनोखे अंदाज में दिया है कि, तुलसी दास की काल-जयी कविता के माध्यम से सहस्रों साल बाद भी उसका नाम लंका के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। कारण था लंका के प्रवेश द्वार पर उसका सोने जैसा सुंदर-सा महल और उसकी अटारी से समुद्र के अनंत जल राशि का अवलोकन करने के कार्य हेतु रावण अपने राजकोष से उसे मासिक वेतन देता था , नौकर-चाकर उसकी सेवा में लगे रहते थे। सही मायने में वह एक नगर वधू थी और रावण की अदम्य शक्ति थी। लंका से सामुद्रिक व्यापार करने आने वाले हर जलपोत उसे रावण की विश्वसनीय जानकर अंशदान देता था और वह उनलोगों से बात करके रावण के शत्रुओं के बारे में जानकारी हासिल करने का गुप्त काम ही करती थी। अधिकांश आदिवासी जाति के लोग लंका में आते थे और लंकिनी को देखकर नगरी में प्रवेश करना सौभाग्य का सूचक मानते थे। इस तरह रावण के राज्य में व्यापारिक गतिविधियों की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होती जा रही थी।       हनुमान से लंकिनी का परिचय भी अलग ढंग से कवि उद्भ्रांत ने करवाया है कि अचानक एक दिन समुद्र से निकल कर लाल-मुख वाला वानर ल

उन्नीसवाँ सर्ग- सुरसा

उन्नीसवाँ सर्ग- सुरसा       कवि उद्भ्रांत ने सुरसा के चरित्र का वर्णन करने के लिए सुरपुर के नरेश इंद्र को सीता के अपहरण की घटना के बारे में जानकारी होने तथा अपनी दत्तक पुत्री स्वयंप्रभा द्वारा सीता की खोज हेतु वन में तपश्चर्या में लीन होने , गिद्धराज जटायु के बड़े भाई सम्पाति के माध्यम से लंका के अशोक वन में सीता का पता लगाने पर जामवंत के परामर्श , किष्किन्धा नरेश सुग्रीव के मित्र हनुमान द्वारा लंका जाने के लिये समुद्र की उड़ान आदि घटनाओं को लेकर सुरसा का परिचय बताया है कि सुरपुर के नरेश इंद्र को रावण के शक्तिशाली होने की चिंता सता रही थी। यही नहीं रावण के पुत्र मेघनाद ने भी धोखे से इन्द्र को परास्त किया था। इसके अतिरिक्त , लंका के चारों तरफ एक अभेद्य दुर्ग है , गुप्तचरों का विशाल तंत्र है और अगर हनुमान असफल हो गए, तो अनर्थ हो जाएगा। इसलिए हनुमान की शक्ति , बुद्धिमत्ता के परीक्षण हेतु सुरसा को इंद्र ने समुद्र में जलपोत लेकर भेजा। वायुगति से तैरते हुए हनुमान को रोक कर लंका जाने के उद्देश्य के बारे में समुद्र रक्षक के रूप में अपना परिचय देते हुए पूछा, तो हनुमान जी ने कहा मैं जल में हू

अठारहवाँ सर्ग- तारा

अठारहवाँ सर्ग- तारा       किष्किन्धा प्रदेश के महाराज बाली की पत्नी तारा थी। तारा के चरित्र का वर्णन करने में कवि उद्भ्रांत उनके व्यक्तिगत गुणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनका वानर समाज में मान-सम्मान था , देवर सुग्रीव उन्हें माँ मानकर नित्य चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते थे और बड़े भाई को भी पिता के समान मानते थे। सुग्रीव की पत्नी रोमा अर्थात उनकी देवरानी एक धर्मभीरु नारी थी और सारे समाज में मान-मर्यादाओं का पूरी तरह से खयाल रखती थी। कवि उद्भ्रांत के अनुसार दोनों भाइयों में दुर्लभ प्रगाढ़ प्रेम था और दोनों के पराक्रम का डंका पूरे जगत में बजता था। यहाँ तक कि एक बार उनको रावण द्वारा ललकारने पर मल्लयुद्ध में धोबी पछाड़ देकर बाईं बाहु के नीचे रखकर उसकी गर्दन को इतनी ज़ोर से दबाया था कि रावण त्राहि कर उठा था और उसके बाद किष्किन्धा प्रदेश में जाना ही भूल गया। तारा का पुत्र अंगद अत्यंत ही शक्तिशाली , बुद्धिमान और माता-पिता का आज्ञाकारी था। इस तरह कवि उद्भ्रांत ने उनके परिवार को सुखी व समृद्ध दर्शाया है। मगर अचानक उनके जीवन में भी एक आंधी आ गई और वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। एक बार म

सत्रहवाँ सर्ग- सूर्पणखा

सत्रहवाँ सर्ग- सूर्पणखा       कवि उद्भ्रांत के अनुसार सूर्पनखा बचपन से ही चंचल , शरारती , झगड़ालू , उछल-कूद करने वाली , क्रोधी तथा ढीठ लड़की थी। पिता और पितामह ऋषि वंश के होने के कारण उसके क्रिया कलापों से परेशान होते थे। रावण बचपन से ही तेजस्वी , शूरवीर , बुद्धिमान , शिव का परम-भक्त , महापंडित व महायोद्धा था। मनुस्मृति उसने पूरी तरह कंठस्थ कर ली थी और उसको उसमें पूरा विश्वास भी था , उसके अनुसार लज्जा स्त्री का आभूषण है और उसका कठोर होना समाज के प्रतिकूल है। सूर्पनखा बचपन से ही विद्रोहणी थी , गुड़ियों से खेलना कभी अच्छा नहीं लगता था। ये सब प्रवृतियाँ बहुत अच्छी लगती थीं। चूँकि बचपन से ही उसने अपने नाखून कभी नहीं काटे, जो युवावस्था में जाते-जाते वक्राकार सूप की तरह लगने लगे। इसलिये रावण ने हंसी मज़ाक में उसका नाम सूर्पनखा से पुकारना शुरू किया , धीरे–धीरे यह नाम लोगों की जुबान पर चढ़ गया और वह अपने माता-पिता द्वारा रखे नाम “सुन्दर” को भूल गई। इसके चचेरे भाई खर , दूषण , त्रिशिरा उससे बहुत प्यार करते थे। खर , खरवाणी बोलता था और त्रिशिरा काम , क्रोध , लोभ , तीनों गुणों से संपन्न था। त्रिशिरा

सोलहवाँ सर्ग- शबरी

सोलहवाँ सर्ग- शबरी       कवि उद्भ्रांत के अनुसार शबरी भील जाति की एक आदिवासी महिला थी , जो अपने पति शबर के द्वारा इस दुनिया में अकेले छोड़े जाने की वजह से आस–पास के घरों में कामकाज करके अपना जीवन यापन करती थी। स्त्री ही स्त्री के दुख को जान सकती है और अगर कोई स्त्री विधवा हो जाए , तो उसके जीने का कोई मायने नहीं रहता है , और दलित जाति की स्त्री के लिए तो वह जीवन त्रासदी का पर्यायवाची बन जाता है। सूनी मांग , उलझे बिखरे बाल , फूटी चूड़ियाँ , खाली पाँव , नाक में न कोई नथनी और न कान में कोई बूंदे और उसके ऊपर पिछड़ी क्षुद्र जाति में जन्म लेना साक्षात अमंगल की मूर्ति के सिवाय और क्या हो सकता है ? मानों करेले पर नीम , नीम पर जहरीला साँप बैठा हो। कवि तो यहाँ तक कह देता है कि एक तुच्छतम घृणित जीव मानो घोर रौरव नरक से चला आया हो। शबरी को अच्छे दिन की तरस रहती है और एक बार जब अयोध्या के राजकुमार सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास के दौरान उसी रास्ते से गुजरने की खबर सुनकर शबरी रोमांचित हो उठती है। कवि पुरानी मान्यताओं को उजागर करता हुआ कहता हैं , कि राजा तो प्रजा के लिए भगवान तथा राजवधू सीता उसके लिए

पंद्रहवाँ सर्ग- सीता

पंद्रहवाँ सर्ग- सीता       कवि उद्भ्रांत ने 15वें सर्ग “सीता” में सीता की उत्पत्ति के बारे में उल्लेख करते हुए लिखा है कि मिथलांचल कि शस्य-श्यामला उर्वर भूमि किसी के अभिशाप से बंजर भूमि हो गई थी। न तो वहाँ अन्न की पैदावार होती थी और न ही किसी भी तरह की कोई वर्षा। देखते–देखते भयंकर दुर्भिक्ष के कारण वहाँ के निवासी लाखों की सख्या में अस्थि-पिंजरों में बदलने लगे , तब  विदेही महाराज जनक  ने प्रजा की आर्त पुकार सुनी। अर्द्धरात्रि में विवस्त्र होकर बंजर कृषिक्षेत्र में अगर वे हल चलाएँगे तो उनकी दयनीय अवस्था देखकर मेघराज इंद्र को दया आ जाएगी और वर्षाजल से सींचकर पुनः उस भूमि को उर्वर बना देंगे। शायद यह उस जमाने का लोक-प्रचलित अंधविश्वास अथवा टोना-टोटका था। मगर कवि के अनुसार हल चलाते समय अचानक उसकी नोक सूखी मिट्टी के ढेर में दबे ढँके कुम्भ से टकरा गई , उस कुम्भ में सुदूर प्रांत के ऋषि वंशज ब्राह्मण के किसी अप्सरा के साथ गोपनीय प्रणय का परिणाम था। यह परिणाम ही सीता थी। हो सकता है लोग उसे सामाजिक तिरस्कार के भय से कपड़ों में लपेट कर मटके में डाल मरने के लिए खुला छोड़ गए थे। क्या यह सीता का अव