सोलहवाँ सर्ग- शबरी

सोलहवाँ सर्ग- शबरी
      कवि उद्भ्रांत के अनुसार शबरी भील जाति की एक आदिवासी महिला थी, जो अपने पति शबर के द्वारा इस दुनिया में अकेले छोड़े जाने की वजह से आस–पास के घरों में कामकाज करके अपना जीवन यापन करती थी। स्त्री ही स्त्री के दुख को जान सकती है और अगर कोई स्त्री विधवा हो जाए, तो उसके जीने का कोई मायने नहीं रहता है, और दलित जाति की स्त्री के लिए तो वह जीवन त्रासदी का पर्यायवाची बन जाता है। सूनी मांग, उलझे बिखरे बाल, फूटी चूड़ियाँ, खाली पाँव, नाक में न कोई नथनी और न कान में कोई बूंदे और उसके ऊपर पिछड़ी क्षुद्र जाति में जन्म लेना साक्षात अमंगल की मूर्ति के सिवाय और क्या हो सकता है? मानों करेले पर नीम, नीम पर जहरीला साँप बैठा हो। कवि तो यहाँ तक कह देता है कि एक तुच्छतम घृणित जीव मानो घोर रौरव नरक से चला आया हो। शबरी को अच्छे दिन की तरस रहती है और एक बार जब अयोध्या के राजकुमार सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास के दौरान उसी रास्ते से गुजरने की खबर सुनकर शबरी रोमांचित हो उठती है। कवि पुरानी मान्यताओं को उजागर करता हुआ कहता हैं, कि राजा तो प्रजा के लिए भगवान तथा राजवधू सीता उसके लिए देवी से कम नहीं है। अगर वे इस रास्ते से गुजरेंगे तो वह कैसे उनकी अगवानी करेगी? वन में सिवाय भूमि पर पड़े हुए बेर के अलावा कुछ भी तो नहीं था। जहाँ लोग रास्ते के दोनों तरफ पुष्पहार, फल व्यंजन और तरह-तरह के उपहार लेकर खड़े हुए थे, वहीं दूसरी तरफ शबरी अपने आँचल में टोकरी भर बेर छुपाए कातर भाव से असंख्य लोगों के बीच उनका इंतजार कर रही थी। जब राम की जय का नारा लगा तो वह पुलकित हो गई, मगर तुरंत ही हतप्रभ होकर चौंक गई कि उसके पास व्यंजन न होकर केवल मीठे बेर हैं और अगर राम ने नहीं खाए तो वह प्राण त्याग देगी। जैसे ही यह बात उसने मंथर गति से चल रहे राम–लक्ष्मण, सीता को कही तो राम ने कौतुकता से मुस्कराते हुए उससे कहा कि बेर से बढ़कर इस जंगल में मेरे लिए कोई श्रेष्ठ व्यंजन नहीं है। यह कहते हुए राम के बेर लेने आते ही शबरी ने राम का हाथ पकड़कर कहा-, रुकें पहले में चख कर देख लेती हूँ कि कहीं बेर खट्टे न हों। मगर आसपास की भीड़ उसे राम को अपवित्र करने की धमकियाँ देते हुए, पीटने तथा धक्का देने लगी। यह देख राम ने सभी के समक्ष उसका पक्ष लेते हुए यह कहा कि- माता शबरी के वत्सल हाथों से मीठे रस में पके बेर खाकर न केवल वे अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं, वरन पुण्य लाभ के भागी भी बन रहे हैं। राम ही नहीं वरन् सीता और लक्ष्मण को भी यह मीठे बेर खिलाकर उपकृत करें। यह दृश्य “न भूतो न भविष्यति” की तरह था। कालांतर से शबरी भीलनी दंडकारण्य की तपस्विनी के रूप में अपनी नवधा भक्ति से परिपूर्ण होकर प्रसिद्ध होती चली गई और उसका आश्रम हनुमान, बाली, सुग्रीव की गाथा, सीता के अपहरण, वानरों द्वारा सीता की खोज आदि घटनाओं का साक्षी बना।


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