छब्बीसवाँ सर्ग- उपसंहार - कलि
छब्बीसवाँ सर्ग- उपसंहार - कलि
कवि ने त्रेता काव्य का ‘उपसंहार’ कविता के रूप में किया है, कि सत्ययुग से प्रारम्भ हुई मानवीय विकास की यात्रा त्रेता युग में आते-आते
अपनी निकृष्टतम परिणति अथवा उच्चतम सोपान तक पहुँची, यह कहा
नहीं जा सकता। मगर त्रेता ने सत्य की कठिन परीक्षा लेते हुए अग्नि देव की लपटों में
उसे तपाकर संतति के रूप में द्वापर को जन्म दिया। जिसने सत्य असत्य की महाभारत को
देखा और असत्य को जीत कर अटटहास करते एवं सत्य को लहू-लुहान होते देखा। पहली बार
रक्त-सम्बन्ध क्रय-विक्रय के सामान बने और मनुस्मृति का तीसरा वर्ण वैश्य संस्कृति
के रूप में चारों दिशाओं में पाँव पसारने लगा। काल का सुदर्शन चक्र वायुवेग से
चलता रहा। द्वापर के अंत में काल के व्याघ्र द्वारा कृष्ण के सुकोमल तलवे को बेधते
ही कलि का प्रादुभाव होता है अर्थात कलि युग में ईश्वर की मृत्यु होने के साथ-साथ
भयानक नर-संहार, नारी लज्जा का हरण, पिता
द्वारा पुत्री पर यौन आक्रमण, काम, क्रोध,
लोभ, मोह, मत्सर की
दुष्प्रवृत्तियाँ इस युग के प्रभाव से ही दिखने लगी। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय ने शासन की बागडोर अपने हाथ में संभाल
कर चौथे वर्ण को सदैव अपेक्षित किया, हाशिये पर रखा और
पाँवों तले कुचला, दबाया। ऐसा ही व्यवहार स्त्रियों के साथ
भी हुआ। त्रेता ने जहाँ मर्यादा की सीमा का उल्लंघन कर एक सुहागिन की अग्नि
परीक्षा तथा लोक अपवाद से बचने के लिए गर्भवती पत्नी के निष्कासन के उदाहरण द्वापर
को महायुद्ध के महासागर में धकेलने के सिवाय क्या कर सकता था? जिसमें स्त्री प्रकृति के साथ पितामह, दादा और पिता
जैसे सम्मानीय पुरुषों की उपस्थिति में क्रूरतम एवं दानवी व्यवहार हुआ। मगर कवि उद्भ्रांत
को उम्मीद है कि कलियुग ही ऐसा युग है, जिसमें समाज का वंचित,
उपेक्षित, अंतिम और असहाय, शोषित, पीड़ित वर्ग को आखिरकार समानता के अधिकार के
माध्यम से प्राकृतिक न्याय मिलेगा और समाज से हमेशा–हमेशा के लिये विषमता का
अंधेरा समाप्त हो जाएगा।
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