चौबीसवाँ सर्ग- धोबिन

चौबीसवाँ सर्ग- धोबिन
      कवि उद्भ्रांत ने इस पात्र की मौलिक कल्पना की है।धोबिन एक जातिवाचक शब्द है, जिसका अर्थ है राम के समय हिन्दू धर्म में अनेकानेक जातियाँ व्याप्त थी। इस सर्ग में हिन्दी भाषा का प्रयोग न करके बृज भाषा का प्रयोग ज्यादा हुआ है। जिसके पीछे उनका उद्देशय तत्कालीन समाज की लोक प्रचलित भाषाओं को आगे लाने के साथ-साथ उस पात्र को सशक्त बनाने का प्रयास किया है।
      अनेक लोगों के मैले-कुचेले कपड़े लेकर धोबिन सरयू नदी के घाट पर उन्हें धोती और नदी में सूरज भगवान की प्रतिमा देखकर ईश्वर की आराधना करती है। उसका पति दिन भर मटरगश्ती करता व गलत दोस्तों के साथ चौपड़, जुआ खेलना या फिर पूरे दिन निठ्ठला होकर बैठना, रात में खूब दारू पीना, घर में पत्नी से मार-पीट और गालियों की बरसात करना आदि सारे काम थे। यह कैसा राम राज्य था, जहाँ औरत की कमाई पर पति गुलछर्रे उड़ाता हो? यह सोचकर धोबिन ने राम के जनता दरबार में जाकर अपनी दुःख व्यथा को रखने का निर्णय लिया कि अगर कोई मेरे आदमी की बुद्धि ठीक कर ले तो उससे ज्यादा उसे और कुछ नहीं चाहिए। धोबिन ने सोचा कि अगर वह घर में एक पहर खाना नहीं बनाएगी तो उसके मर्द की बुद्धि ठिकाने आ जाएगी। यह सोचकर वह अपने पीहर चली गई। मगर माँ ने एक सीख दी कि पति का घर ही ब्याही गई बेटी का असली घर होता है, इसलिए कभी भी बिना बताए उसे नहीं निकलना चाहिए। यह सोचकर जब वह वापस अपने घर लौटी तो उसने देखा उसका पति खाट पर बैठा देशी दारू पिया हुआ है और उसे देखते ही बुरी-बुरी गालियाँ देते हुए कोठरी के भीतर खींचकर ले गया और लात-घूँसों की बरसात करने लगा। “धिक्कार! सारे दिन तुम कहाँ रही थी? धोबिन के पति ने उससे सवाल किया तो उसने सारी कहानी बता दी कि माँ कि तबीयत ठीक नहीं होने के कारण उसे देखने गई थी। उसकी पोटली में से खाने के सामान के साथ-साथ सोने की गिन्नी गिरी, तो धोबी उसे और ज्यादा पीटते हुए कहने लगा कि तू सती सावित्री होने पर भी, अग्नि–परीक्षा देने पर भी मैं तुम्हें नहीं रखूँगा। तुम्हारे छिनालपन का प्रमाण मुझे मिल गया। मैं भले ही छोटी जाति का हूँ, मुझे रामचन्द्र समझने की गलती मत करना, जिसने अनदेखी नौटंकी अग्नि-परीक्षा की बात कहकर दुश्मन के घर में कई महीने बिताकर आई सीता को फिर से अयोध्या की महारानी बना दिया। मुझे बिना बताकर दिन भर बाहर रहकर अपने प्रेमी के साथ मटरगश्ती कर सोने की गिन्नी लाकर मेरे सामने नाटक कर रही है। जा तू यहाँ से भाग, राजा से मेरी शिकायत कर- यह कहते हुए फिर से उसने धोबिन के पेट पर ज़ोर से लात मार दी।
      देखते-देखते यह सारी बात एक साँस से दूसरी साँस, एक कान से दूसरे कान में पहुँचती हुई, राजमहल के धवल पत्थरों की चार दीवारों को लाँघकर सीता-राम के शयन कक्ष में पहुँच गई और इस हवा के अर्थ की गूँज सुनकर सीता फिर से सुनसान जंगल की तरफ साँय–साँय करती निकल पड़ी। धोबिन के मन में उसके पति के अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए गहरा विश्वास पैदा हो रहा था। उसकी दृष्टि में चाहे रामराज्य हो या रावण राज्य, उसे अपने सतीत्व का प्रमाण देना ही होगा, चाहे अग्नि से, नहीं तो जल से, नहीं तो हवा से, आसमान से या फिर इस धरती मैया की मिट्टी से सच का प्रमाण देना ही होगा।





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