अठारहवाँ सर्ग- तारा

अठारहवाँ सर्ग- तारा
      किष्किन्धा प्रदेश के महाराज बाली की पत्नी तारा थी। तारा के चरित्र का वर्णन करने में कवि उद्भ्रांत उनके व्यक्तिगत गुणों का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनका वानर समाज में मान-सम्मान था, देवर सुग्रीव उन्हें माँ मानकर नित्य चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते थे और बड़े भाई को भी पिता के समान मानते थे। सुग्रीव की पत्नी रोमा अर्थात उनकी देवरानी एक धर्मभीरु नारी थी और सारे समाज में मान-मर्यादाओं का पूरी तरह से खयाल रखती थी। कवि उद्भ्रांत के अनुसार दोनों भाइयों में दुर्लभ प्रगाढ़ प्रेम था और दोनों के पराक्रम का डंका पूरे जगत में बजता था। यहाँ तक कि एक बार उनको रावण द्वारा ललकारने पर मल्लयुद्ध में धोबी पछाड़ देकर बाईं बाहु के नीचे रखकर उसकी गर्दन को इतनी ज़ोर से दबाया था कि रावण त्राहि कर उठा था और उसके बाद किष्किन्धा प्रदेश में जाना ही भूल गया। तारा का पुत्र अंगद अत्यंत ही शक्तिशाली, बुद्धिमान और माता-पिता का आज्ञाकारी था। इस तरह कवि उद्भ्रांत ने उनके परिवार को सुखी व समृद्ध दर्शाया है। मगर अचानक उनके जीवन में भी एक आंधी आ गई और वे एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। एक बार मायावी राक्षस से गुफा के अंदर बाली युद्ध कर रहे थे तथा अपने छोटे भाई को गुफा के द्वार पर बैठने का निर्देश दिया और कहा कि अगर 15 दिनों में मैं बाहर नहीं आता हूँ तो तुम इसका मतलब मुझे मारा हुआ जान किष्किन्धा की गद्दी पर आसीन हो कर राज्य संभालना और मेरे पुत्र अंगद और पत्नी तारा की रक्षा करना। 15 दिन बीतने के बाद भी जब बाली गुफा से बाहर नहीं आए, बल्कि गुफा से रक्त की धार बाहर निकली तो सुग्रीव अपने भाई को मारा हुआ जान, गुफा के द्वार पर शिला रखते हुए दुःखी मनसे किष्किन्धा प्रदेश लौट गये और रोते हुए वहाँ पर पूरा माजरा तारा को बताया, मगर तारा को बिलकुल भी विश्वास नहीं हुआ। मगर जब सुग्रीव ने शपथ खाते हुए बताया तो तारा रोते-रोते मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। सुग्रीव ने अंगद को राजा बनाने का प्रस्ताव रखा तो जाम्बवन्त जैसे मंत्री ने उसके अवयस्क होने के कारण इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और सुग्रीव को सर्व सम्मति से किष्किन्धा का राजा घोषित कर दिया। मगर एक दिन अचानक वानर समूह “महाराज बाली की जय हो” का गगनभेदी नारा लगाते हुए महलों की तरफ बढ़ते आए तो उसे विशवास नहीं हुआ। महाराज बाली ने सुग्रीव को मारा पीटा, प्रताड़ित किया और किष्किन्धा से निष्कासित कर दिया। इस अवस्था में तारा के मन मस्तिष्क पर क्या गुजरी होगी, उसका वर्णन करते हुए कवि उद्भ्रांत लिखते हैं कि विवाहित स्त्री की भावनाओं के रक्तस्नात होने का ध्यान किये बगैर किस तरह वह पटरानी से पदच्युत होकर देवरानी की सौतन बनी थी। एक सुहागन स्त्री के लिये इससे ज्यादा और क्या विडम्बना हो सकती थी!
      कवि उद्भ्रांत ने इस घटना को यहीं पर समाप्त न करते हुए राम के सीता की खोज का प्रसंग कर सुग्रीव हनुमान के साथ मैत्री संबंध स्थापित कर बाली का वृक्ष की ओट से छिपकर उनपर तीर चलाकर प्राणान्त कर दिया और सुग्रीव को पुनः राज्य प्राप्ति करा दी और अंगद को श्री राम का संरक्षण मिल गया। मगर तारा की जिंदगी उलझन में पड़ गई। यह बात अलग है कि समाज ने उसे पंचकन्या के रूप में गिनना शुरू किया।



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