बाईसवाँ सर्ग- मन्दोदरी

बाईसवाँ सर्ग- मन्दोदरी
      कवि उद्भ्रांत ने मन्दोदरी के चित्रांकन में विशेष ध्यान रखा है कि त्रेता की मुख्य पात्र सीता की तरह मन्दोदरी का चरित्र भी काफी उज्ज्वल रहा है।कवि के अनुसार मन्दोदरी के पिता मय’ ने जब उसकी माता को मन्दोदरी के विवाह के बारे में बताया कि ऋषि पुलस्त्य के वंश के ऋषि विश्रवा के सबसे बड़े पुत्र रावण से तय हुआ है, तो वह फूली नहीं समायी। मन्दोदरी ने रावण के पराक्रम की अनेक गाथाएँ सुन रखी थीं। रावण जितना सुंदर, बलिष्ठ, परम पराक्रमी, विद्वान, ज्ञानी था, उतना ही वह महादेव का अनन्य भक्त भी था। मन्दोदरी के नामकरण के बारे में अपनी चिर-परिचित शैली के तहत कवि उद्भ्रांत कहते हैं कि जन्म लेने के बाद माँ का स्तनपान अधिक नहीं करने के कारण उसका नाम मन्दोदरी रखा गया। वह अल्पभोजी भी थी और अल्पभाषी भी। पुरुष-सत्तात्मक समाज नारी के मितभाषी और मितभोजी होने की अपेक्षा सदैव करता है। उसके अनुसार अगर नारी ज्यादा बोलेगी तो वाचाल कही जाएगी और उसे कोई पसंद नहीं करेगा और अगर ज्यादा भोजन करेगी तो मांस-मज्जा बढ़ने के साथ-साथ पृथुलकाय हो जाएगी, तो बेडौल शरीर देखकर वैवाहिक संबंधों में रुकावट आएगी। तत्कालीन समाज में इस तरह के मानदंड स्वीकार्य थे। मगर संयोगवश मन्दोदरी की प्रकृति मंद वाणी, मंद उदर की थी इसलिए वह अप्रतिम सौंदर्य और लाखों स्त्रियों में विलक्षणता से भरी हुई थी। कवि उद्भ्रांत ने मन्दोदरी के भाग्य में मिट्टी का सोना नहीं, सोने की मिट्टी में जीवन-यापन करने का विधाता की स्वर्ण तूलिका से भाग्य लिखा। लंका एक भव्य नगरी, गगनचुम्बी इमारतें, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ, स्वच्छ चमचमाते राजमार्ग और उनके दोनों किनारे हरीतिमा बिखेरते विशाल वृक्षों के झुंड, किसे आकर्षित नहीं करते होंगे! सोने से बने भवनों के गुम्बद, प्रवेश द्वारों पर जब सूरज की किरणें टकराती थीं तो अत्यंत चमक होती थी। उन दृश्यों की कल्पना करें, जब सोने के रथ पर आसीन होकर मन्दोदरी रावण के साथ राजमहल की ओर प्रवेश करती तो राजमार्ग के दोनों तरफ खड़े सहस्त्रों नर-नारी, सशस्त्र सैनिक उनका अभिनन्दन करते हुये जय-जयकार करते होंगे, उस समय ऋषि-कन्या मन्दोदरी का मन खुशी से फ़ूला नहीं समाता होगा। उनके माता-पिता को भी उसके भाग्य पर गर्व होता होगा। मगर क्या नियति की रेखाओं को टाला जा सकता है? जहाँ ऋषि आश्रम में पली मन्दोदरी लोक को सत्ता का सर्वोच्च बिन्दू मानती, उसी मन्दोदरी को क्रूर और निरकुंश अधिनायकवादी सत्ता से परिपूर्ण राज्य में अपनी प्रकृति को बदलना पड़ रहा था। शिवस्त्रोत के रचयिता रावण ध्वन्यालंकार से परिपूर्ण पाठ का वाचन करते तो सुनने वालों के समक्ष मानों मंत्रों के प्रभाव से समस्त देव, ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र और यहाँ तक कि साक्षात शिव उपस्थित हो जाते थे। ऐसा लगता था मानो रावण ने उन्हें अपने वश में कर लिया हो और जब रावण सुध-बुध भुलाकर अपने अहंकार रूपी सिर को काट-काट कर दस दिनों तक चलने वाले शिव जी के रुद्राभिषेक यज्ञ में चढ़ाते तो दसों दिशाओं से ज्ञान-चक्षुओं द्वारा अमृत सिर से उनके कंधों पर आकर जुड़ते और उनकी मानसिक शक्ति को दस गुना बढ़ाते हों। इस तरह रावण के दस सिर होने की मौलिक कल्पना कवि ने अपने ढंग से की है।
      रावण के दोनों भाई कुम्भकर्ण और विभीषण की प्रकृति रावण से पूरी तरह भिन्न थी। कुम्भकर्ण शिव उपासक थे, मगर उन्हें सत्ता की कोई भूख नहीं थी। भांग का सेवन करने के कारण उन्हें भयानक भूख लगती और वे रात-दिन सोते रहते थे। लोगों ने मज़ाक-मज़ाक में उनके बारे में अफवाह उड़ा दी कि वे छः महीने सोते हैं, एक दिन उठते हैं फिर छः महीने के लिए सो जाते हैं। इस परिहास का वे कोई मुँह खोलकर उत्तर नहीं देते थे, अपनी भोली प्रकृति के कारण। विभीषण विष्णु भक्त थे, छोटा डीलडौल था। अनुशासित जीवन था। ब्राह्ममुहूर्त में उठकर और रात्रि में शयन के समय नित विष्णु सहस्र नाम का जप करते थे। कवि के अनुसार रावण को उनकी जीवनचर्या भीषण हास्यास्पद लगती थी। इसलिए शायद उन्हें विभीषण कहा जाने लगा। विभीषण को सत्ता से कोई विरक्ति नहीं थी, मगर कनिष्ठ होने के कारण उन्हें सत्ता मिलने की कोई उम्मीद न थी। वे अक्सर यह सोचा करते कि अगर उन्हें सत्ता मिलती तो वे रावण के निरंकुश शासन के विपरीत आदर्श शासन व्यवस्था को स्थापित कर दिखा सकते हैं। रावण को शिव ने अमरत्व का वरदान दिया था। चूँकि वे द्रविड़ शासक थे, इसलिए उन्हें आर्य जाति से नफरत थी। मन्दोदरी के बड़े पुत्र के जन्म के समय मेघ गर्जन की तरह उसने चीत्कार किया था। तभी रावण ने उनका नाम मेघनाद रख दिया। यह वह घड़ी थी, जब वह अपने द्वारा निर्मित रुद्र वीणा में भावाकुल होकर पुत्र जन्म की प्रतीक्षा कर रहे थे। कवि ने अपनी कल्पना का विस्तार करते हुये आगे लिखा है कि मेघनाद के जन्म होते ही इंद्रपुरी में राजा इन्द्र को परास्त कर मेघों को बरसने का निर्देश दिया है। ताकि लंका का कृषि-व्यापार समृद्ध हो सके। मन्दोदरी ज्यादा खुश होती, अगर पुत्र के स्थान पर उसे पुत्री प्राप्त होती, क्योंकि वह पुत्र जन्म के साथ-साथ महाराज के साम्राज्य विस्तार की लालसा को बढ़ते हुए देख रही थी। उनके आचरण में क्रूरता, हिंसा जैसी घातक प्रवृत्तियाँ भी दिखाई देने लगी थीं। मन्दोदरी के प्रति अनुराग खत्म हो गया था और रावण अकर्मण्य विलासी जीवन बिताने के अभ्यस्त हो गए थे। स्त्रियों के प्रति वासनात्मक आकर्षण बढ़ता हुआ नजर आने लगा था। इन्हीं अवस्थाओं में मंदोदरी के एक और पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया, अक्षय कुमार। रावण की यश और कीर्ति को अक्षय रखने की आकांक्षा में प्रतीकात्मक नाम रखा गया था। मेघनाद बचपन से ही ईश्वर भक्त था, मगर अक्षय कुमार शक्ति और सत्ता के मद में चूर। यह नियति थी मन्दोदरी के जीवन की। मेघनाद का विवाह सुलोचना नामक सुंदर कन्या से हुआ। कवि उद्भ्रांत ने मन्दोदरी के चरित्र में यहाँ एक मरोड़ (twist)लिया है कि मेघनाद के जन्म के पूर्व मन्दोदरी ने गर्भ धारण किया था, लेकिन अचानक एक दिन गर्भपात हो गया तो राजमहल के अनुचरों ने मृत बच्चे के जन्म के बाद किसी दूसरे देश में फेंक दिया था। शायद कवि ने यहाँ दो बातों की ओर ध्यान आकर्षित किया है; पहला क्या वह कन्या सीता थी? दूसरा रावण पुत्री के जन्म को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे? कन्या शिशु के जन्म होते ही उसकी निर्मम हत्या कर दी जाती थी? मन्दोदरी के चरित्र में कन्या शिशु की हत्या का और उसके बाद मन में उपजे घोर विषाद का मर्मान्तक वर्णन कवि ने किया है कि मन्दोदरी अवसादग्रस्त हो कर किस तरह अपनी पुत्री के बारे में दिवास्वप्न देखती है और वह मन ही मन निश्चित कर लेती है कि आने वाला समय गहनतम अंधकार में होगा। इस आशंका की पुष्टि और गहराने लगती है जब उसे पता चलता है कि रावण ने जंगल से किसी सुंदर नारी का अपहरण कर लंका के अशोक वन में बन्दी बनाकर रखा है। इतना बड़ा पापकर्म! सोच-सोच कर मन्दोदरी की आँखों से खून के आँसू बहने लगते हैं कि अपने पति से अलग होकर किस तरह वह विवाहित स्त्री रह पाएगी? इसलिए उसने अपनी परम विश्वसनीय सखी सेविका त्रिजटा को सीता की देख-रेख के लिए वहाँ नियुक्त किया। मन्दोदरी खुद सीता को देखने के लिए नीरव सुनसान रात में त्रिजटा के साथ अशोक वन में गई थी। जब वह सीता के पास पहुँची तो उसने खड़ी होकर चरणस्पर्श करते हुए आशीर्वाद माँगा और कहने लगी कि आप जनक पुरी की मेरी माँ की तरह हो और मुझे ऐसा लग रहा है, मानो शादी के बाद जैसे स्त्री मायके लौटती है वैसे ही मैं अपनी माँ को देखने के लिए यहाँ लाई गई हूँ। जिस तरह दामाद से असन्तुष्ट क्षुब्ध पिता, पुत्री को अकेली पाकर बलपूर्वक अपने घर ले आया हो और दामाद को उससे पृथक रहने की सजा दे रहा हो। यह सुनकर मन्दोदरी को अपनी कोख में पली मृत अवस्था की बेटी की याद हो आई कि यही तुम्हारी बेटी है। अयोध्या नरेश की तरह बेटी का जन्म होते ही लंका नरेश ने उसकी या तो हत्या करने का या दूर देश में छोड़ने का संकल्प लिया होगा। मन्दोदरी रावण के इस कुत्सित कार्य के बारे में समझ नहीं पा रही थी। क्या यह वही लड़की है, जिसे रावण ने वस्त्रों में लपेट कर जनकपुरी की कृषि-योग्य भूमि में थोड़ी-सी मिट्टी में ढँका होगा और राजा जनक के हल की नोंक से टकराने पर वह कुम्भ मिल गया होगा? क्या रावण ने यह सुनोयोजित प्रबन्ध किया था। इस तरह के अनेक कथानक कवि की कल्पना में साकार रूप लेते हैं। मन्दोदरी सीता को समझाते हुए उसे आश्वासन देती है कि वह शीघ्र ही अपने पति राम के पास सुरक्षित पहुँचेगी- यह कहकर वह उसके मस्तिष्क पर लंकावासियों की कु-दृष्टि से बचाने के लिए काला टीका लगा लेती है। मगर उसके बाद वह यह सोचना शुरू कर देती है कि लंका के अंतिम दिन अब ज्यादा दूर नहीं है। धीरे-धीरे अपने पुत्र अक्षय की हनुमान के हाथों मृत्यु, बाली के पुत्र अंगद द्वारा रावण की सभा का अपमान, लंका दहन, देवर विभीषण का निष्कासन, मन्दोदरी को धीरे-धीरे तोड़ने लगे। मन्दोदरी को मन ही मन सीता में अपनी बेटी नजर आने लगी। इन सारी बातों में रावण सहमत थे मगर उस निर्णायक घड़ी में सत-परामर्श को मानने का सवाल ही नहीं उठता था। अपनी रावण संहिता के अनुसार वीर-पुरुष द्वारा एक बार कदम आगे बढ़ाने के बाद पीछे हटाने का सवाल ही नहीं उठता था। सीता अपहरण के पीछे भी एक सुनिश्चित उद्देश्य था। सूर्पनखा का प्रतिशोध, नारी के अपमान का प्रतिकार। सीता तो बालिका थी। उसके मन में स्वर्ण मृग के चर्म की आकांक्षा बाल सुलभ थी, मगर राम तो विद्वान थे, वे तो समझा सकते थे कि हर चमकती हुई वस्तु सोना नहीं होती। सोने का यह लोभ किस तरह प्राणियों को अंधे कुएँ में ढकेल देता है। राम का उस हिरण के पीछे दौड़ना क्या उचित था? लक्ष्मण का सद्-विवेक क्या मार खा गया था, जिसने राम के आदेश का उलंघन किया था? अगर मैं सीता का अपहरण नहीं करता तो उसके द्वारा पहने हुए स्वर्ण आभूषणों के लिए कोई वन-दस्यु करता, तो शायद सीता जीवित भी नहीं बचती या तो वे लोग उसे मार डालते या फिर वन के जंगली पशु शेर, चीते, बाघ, शूकर, विषैले कीट, अजगर उसे जिंदा खा जाते। मैं उसका अपहरण कर समाज को यह संदेश देना चाहता था कि हर साधुवेशधारी व्यक्ति पर विश्वास करना ठीक नहीं है।
      राम और लक्ष्मण तो क्षत्रिय थे मगर उन्होंने साधुवेश क्यों धरण किया? मैं तो जन्म से ब्राह्मण था इसलिए साधुवेश धारण कर भिक्षा मांगने गया। मैंने कोई छल-कपट नहीं किया है। न मेरे मन में कोई कुत्सित भावना थी। मै तो तीर चलाकर एक साथ कई लक्ष्य साधना चाहता था, ताकि समाज में स्त्रियाँ विशेषकर सजग हो जाएँ। मैं तो खुद नहीं चाहता था कि सीता राम से अलग रहे, और न ही मेरे मन में सीता के प्रति कोई खराब भावना थी। मैं तो उसे अपनी बेटी की तरह मानता था। जंगल के बीहड़ों में वह सुरक्षित नहीं थी और वनवास की शेष अवधि में उसके लिए कोई सुरक्षित स्थान भी नहीं था। इसलिए लंका की सुन्दर मनोहर अशोक वाटिका के सर्वाधिक घने और विशाल छायादार पवित्र अशोक वृक्ष के नीचे उसे रखना मेरे लिए श्रेयस्कर था। सपने में भी सीता को लेकर कोई निंदनीय विचार मेरे मन में नहीं आया।
      रावण की वागविदग्धता का मन्दोदरी मन ही मन लोहा मानती थी, फिर भी उसकी शंकाओं का समाधान नहीं हुआ कि रावण ने सीता की रक्षा करनेवाले जटायु का वध क्यों किया? सशस्त्र दासियों से डराने का प्रयास क्यों किया? मगर रावण ने सभी प्रश्नों का अविचलित होकर उत्तर दिया कि जटायु तो मुर्दों के शरीर को नोंच-नोंच कर खाने वाला हिंस्र गिद्ध जाति का पक्षी है, उसपर कैसे विश्वास किया जा सकता है? हो सकता है वह सीता को अपना शिकार बना सकता था? इसी तरह हनुमान रामदूत था, मगर राम नहीं। इसलिए राम के वानर दल की शक्ति की परीक्षा लेना भी मेरा उद्देश्य था ताकि मैं उसके बल का अनुमान लगा सकूँ कि वह कितना बुद्धिमान, तेजस्वी या योगी पुरुष है। इसी तरह अंगद मेरे प्रतिद्वन्द्वी बाली का सुपुत्र था। मैंने उसके बाल मन को रखने के लिए उसका पाँव उठाने का नाटक मात्र किया था। सभी महारथी योद्धाओं ने तनिक भी अपनी शक्ति नहीं लगाई। विभीषण शुरू से मुझे अपना भाई न समझकर शत्रु समझता था। उसकी दृष्टि हमेशा लंका के राज्य पर लगी रहती थी। वह मेरे आराध्य देव शिव को न मानकर विष्णु की भक्ति करता है और दुश्मनों के साथ हमेशा साँठ-गाँठ बनाए रखता था। इसलिए आस्तीन के साँप से छुटकारा पाने के लिए मैंने लात मारकर उसे राज्य से निष्कासित कर दिया। रही सीता को डराने की बात तो मेरा दासियों को स्पष्ट निर्देश था कि वह उसे तनिक भी क्षति न पहुँचाएँ, केवल भयाक्रान्त करें, क्योंकि मैं उसके साहस, संकल्प और आत्मबल की परीक्षा लेना चाहता था। राजमहल में उसे लाना भी उसकी सुरक्षा के लिए था। मैं जानता हूँ, किसी स्त्री के आँसू की एक बूँद मेरा हृदय भेदने के लिय पर्याप्त है। अगर फिर भी तुम्हें विश्वास न हो तो क्या रात में तुम अकेले मिलने जा सकती या तुम्हारी विश्वस्त सखी त्रिजटा उसके नजदीक पहुँच पाती? मेरे गुप्त सूचना तंत्र इतने भी कमजोर नहीं हैं कि मुझे यह सारी बातें पता न चलती। मैं जानता हूँ हमारी राक्षस जाति, जो दूसरों की रक्षा के लिए विख्यात हो सकती है, मद में चूर और नित्य सुरापान में कमजोर हो चुकी है। इसलिए इस जाति का नष्ट होना जरूरी है। राम रावण का युद्ध तो केवल निमित्त मात्र है। इस यज्ञ में मुझे अपने बेटों और भाइयों की भले आहुति ही क्यों न देनी पड़े। इस तरह रावण ने मंदोदरी की सारी शंकाओं का समाधान कर दिया और उससे कहा मैं तुमसे केवल यह अपेक्षा रखता हूँ कि युद्ध की समाप्ति के बाद सीता को ससम्मान उसके घर अर्थात पति के पास पहुँचा देना, यह कहते हुए कि वह पवित्र अग्नि की तरह लंका में रही है। जैसे कोई विवाहित बेटी अपने मायके में रहती ।तुम्हारी गणना त्रेता युग की सर्वश्रेष्ठ नारियों में होगी। तुम्हारी बात पर सारी दुनिया बात करेगी। ऐसा कहकर रावण अपने कक्ष में लौट गए और रह गया मन्दोदरी का सजल आर्त्तनाद, भीषण चीत्कार, अग्निकण बरसते बादलों की तरह और स्वर्ण कुम्भ फूटने से दिगभ्रमित दशों दिशाओं की तरह।












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