इक्कीसवाँ सर्ग- त्रिजटा

इक्कीसवाँ सर्ग- त्रिजटा
      लंका के राजमहल में लाखों स्वामी भक्त दास–दासियाँ थीं। मगर एक दासी बिलकुल ही अलग-अलग थी, जिसे कभी भी पुरस्कार पाने की लालच में न तो मिथ्या सम्भाषण करने की आदत थी और न ही किसी प्रकार के चौर्य–कर्म में लिप्त रहने की इच्छा। कवि उद्भ्रांत के अनुसार त्रिजटा का जीवन सादगी भरा था। जो कुछ मिलता था उसी में संतुष्ट रहने वाला था। वह अन्य दासियों की तुलना में कभी भी अपने साजो-शृंगार में रुचि नहीं रखती थी। इस वजह से केश बढ़कर किशोरावस्था के पूर्व ही जटाओं का रूप लेने लगे, वह भी एक नहीं बल्कि तीन-तीन। कवि की कल्पना के अनुसार इन तीन जटाओं को देखकर लोगों ने शायद इस दासी को संन्यासिनी समझकर इसका नाम त्रिजटा रख दिया होगा। यही नहीं कवि अपनी कल्पना को और विस्तार देता है और त्रिजटा के मन को तीन भागों में बांटता है- पहला मन रावण के प्रति स्वामी भक्ति का, दूसरा मन मन्दोदरी के प्रति आदर श्रद्धा वाला और तीसरा जंगल के सभी जीव जन्तुओं के प्रति प्रेम और करुणा से भरा हुआ संवेदनशील भाव वाला। कवि त्रिजटा के चरित्र की व्याख्या करने से पूर्व रावण के चरित्र पर भी प्रकाश डालते हैं। एक तरफ, जहाँ रावण परम विद्वान, शक्तिमान, शिव-भक्त और प्रजा-वत्सल थे, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं के प्रति
उसका दृष्टिकोण ठीक नहीं था। वह जानती थी कि मंदोदरी के मन की घुटन को। मगर वह कुछ नहीं कर पाती थी, सिवाय मंदोदरी की सहिष्णुता और अपार धैर्य को देखकर आश्चर्य चकित होने के। एक बार जब मंदोदरी को उदास देखकर वह उसके पास गई तब भी मंदोदरी ने उसे कुछ नहीं बताया
, मगर एक साथी के माध्यम से रावण द्वारा सीता के अपहरण की बात पता चलने पर वह मन ही मन दुःखी हुई। रावण ने सीता को अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे आदर पूर्वक रखा और दासियों में त्रिजटा को भी सीता की देखरेख करने का मंदोदरी ने निर्देश दिया। इस तरह वह अपहृता नारी की भयाक्रान्त, मानसिक प्रताड़ित अवस्था देखकर भावविह्वल हो उठी। तथा सशस्त्र दासियों से सीता को बचाने के लिए अपने स्वप्न दर्शन की युक्ति का सहारा लिया कि भोर-भोर उसने सपने में एक वानर को पूरी लंका नगरी को जलाते हुए देखा है, जिसका अर्थ लंका के अंतिम दिन आ गए हैं। यह देखकर बाकी दासियों ने सीता को सताना छोड़कर अच्छा व्यवहार करना शुरू किया। त्रिजटा ने अपना परिचय सीता को देते समय कहा कि भले ही उसका जन्म लंका में क्यों न हुआ हो, मगर रावण द्वारा तुम्हारा अपहरण एक बहुत बड़ा अपराध है। माता मंदोदरी की सेवा करते-करते मेरे भीतर भी वैष्णव वृति जाग गई है, इसलिए मैं दुखी और क्षुब्ध हूँ और तुम्हारे प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार कर जल्दी से जल्दी राम के पास भेजने की व्यवस्था करवाने में सहयोग दूँगी। तब तक तुम्हारी समग्र सुरक्षा का भार मेरे कंधों पर है। इस तरह त्रिजटा की स्नेहिल बातें सुनकर सीता के चेहरे का भय, आशंका सब जाती रही और वह सीता से ऐसा घुल मिल गई मानो उसकी माँ हो। इस तरह कवि ने त्रिजटा के चरित्र को उदात्त बनाते हुए, सीता मिलन के क्षण को सबसे यादगार और पावन बना दिया है।







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