तेरहवा सर्ग - माण्डवी

तेरहवा सर्ग - माण्डवी
      माण्डवी राजा जनक के भाई कुशध्वज की कन्या थी, जिनका विवाह भरत के साथ हुआ। वह श्रुति कीर्ति की बहन थी। माण्डवी के दो पुत्र हुए, तक्ष और पुश्कल, दोनों ही बड़े वीर थे। पुश्कल ने शत्रुघ्न के साथ सम्पूर्ण देशों में घूमकर रामचन्द्र के अश्वमेघ यज्ञ से संबंधित अश्व की रक्षा की थी। तक्ष और पुश्कल ने भरत के साथ कैकय देशों में जाकर वहाँ रहने वाले तीन करोड़ गंधर्वों को परास्त किया और सिन्धु नदी के दोनों तटों पर अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की। वहाँ भरत ने दो समृदधशाली नगर बसाए। गंधर्व देश (सिंध), सिंध में तक्ष के नामपर तक्षशिला नामक नगरी बसाई और गांधार देश (अफगानिस्तान) में पुश्कल के नाम से पुष्कलवती नाम की नगरी बसाई गई।

      कवि उद्भ्रांत ने तेरहवें सर्ग माण्डवी में उसकी मनोस्थिति का वर्णन किया है कि जब भरत, शत्रुघ्न के साथ ननिहाल से अयोध्या लौटे तो वहाँ हलचल मच गई थी। राम के वनवास के बारे में सुनकर वह भयभीत हो गई। जब भरत का निस्तेज विवर्ण मुख मण्डल देखा तो न केवल माण्डवी भयभीत हुई, वरन् कैकेयी भी भयाक्रांत हो गई थी, क्योंकि उसने जो भी किया वह उसके पुत्र की प्रकृति के विपरीत था। शादी के बाद की बातों को याद करते हुए वह कहती है कि भरत का राजमहल में कभी मन नहीं लगता था। राम के वन-गमन करते समय उन्हें अवश्य यह लगा होगा कि अगर उन्हें खुद को वन जाने का अवसर मिला होता, तो भगवत भक्ति की साधना के मार्ग में उनका एक पग और बढ़ा होता। मगर माँ की राजलिप्सा के कारण भैया राम को व्यर्थ में चौदह वर्ष सपत्निक घूमना पड़ेगा, वह भी लक्ष्मण के साथ। महाराज दशरथ की खराब अवस्था को देखकर उन्होंने राम को वापस बुलाने का प्रयास किया। मगर वह प्रयास निष्फल हुआ, तो उनकी चरण पादुकाओं को प्रतीक का चिहन मानकर सिंहासन पर अवस्थापित कर राजकाज का प्रबंध देखते और सुबह-शाम राजमहल के बाहर निर्मित कुटिया में भगवत चिन्तन में लीन रहते हुए अपने आपको आदर्श पुरुष बना लिया था। कभी भी उन्होंने यह नहीं सोचा कि वे विवाहित हैं, उनकी एक पत्नी है, जो अयोध्या वासियों की दृष्टि में महारानी है। वे खुद तो भूमि पर शयन करते थे, तो मैं किस तरह राजसी शैय्या पर सोने का सपना देख पाती। मैं भी भिक्षुणी की तरह जीवन बिताते हुए भूमि पर सोती थी, राजमहल के भव्य दिव्य रनिवास में। सादा,स्वाद रहित भोजन करते वे जीवन गुजार रही थी। सास कैकेई के इस कृत्य ने न केवल उसे विधवा बना दिया, वरनं लोक निंदा के परम दुःख ने उसके जीवन को दारुण बना दिया था। न तो राज सिंहासन मिला और न ही राम अयोध्या लौटे। दुःख का अवसाद उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देता था। राजमहल में राजकीय प्रथा के अनुसार नियमों का आचरण होता था। सभी के लिए आत्मानुशासन और आचार सहिंता का पूरी तरह पालन होता था। वस्त्र पहनने ओढ़ने अथवा बिछाने में मुझ पर कोई प्रतिबंध न था। मगर मैंने अपने आप पर प्रतिबंध लगा दिया था। उत्तर दायित्व की भावना का निर्वहन करते हुए मेरे भीतर कभी भी राजा की बेटी होने का भाव पैदा नहीं हुआ था। कवि उद्भ्रांत ने माण्डवी नाम के रहस्य उदघाटन करते हुए लिखा है कि – माँ ने उसकी रगरग में स्त्री धर्म को जल में गूँथे आटे की तरह माण्ड दिया था, इसलिए मेरा नाम माण्डवी हुआ। इस तरह मैंने सूर्यवंश की उजली छवि पर अपना आत्म संयम न खो कर सारा कलंक लगने से बचा दिया, अन्यथा भरत भी बड़े अपयश के भागी होते। मैंने अपना सारा जीवन जल में रहती मछली की तरह बिताया,वह भी थोड़े समय के लिए नहीं वरन् चौदह साल।

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