छठा सर्ग-सुमित्रा

छठा सर्ग-सुमित्रा


सुमित्रा रामायण की प्रमुख पात्र और राजा दशरथ की तीन महारानियों में से एक हैं। सुमित्रा अयोध्या के राजा दशरथ की पत्नी तथा लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न की माता थीं। महारानी कौशल्यापट्टमहिषी थीं। महारानी कैकेयी महाराज को सर्वाधिक प्रिय थीं और शेष में श्री सुमित्रा जी ही प्रधान थीं। महाराज दशरथ प्राय: कैकेयी के महल में ही रहा करते थे। सुमित्रा जी महारानी कौसल्या के सन्निकट रहना तथा उनकी सेवा करना अपना धर्म समझती थीं। पुत्रेष्टि-यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा प्राप्त चरू का आधा भाग तो महाराज ने कौशल्या जी को दिया शेष का आधा कैकेयी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके महाराज ने एक भाग कौशल्या तथा दूसरा कैकेयी के हाथों पर रख दिया। दोनों रानियों ने उसे सुमित्रा जी को प्रदान किया। समय पर माता सुमित्रा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। कौशल्या जी के दिये भाग के प्रभाव से लक्ष्मण जी श्रीराम के और कैकेयी जी द्वारा दिये गये भाग के प्रभाव से शत्रुघ्न भरत जी के अनुगामी हुए। वैसे चारों कुमारों को रात्रि में निद्रा माता सुमित्रा ही कराती थीं। अनेक बार माता कौशल्या श्री राम को अपने पास सुला लेतीं। रात्रि में जगने पर वे रोने लगते। माता रात्रि में ही सुमित्रा के भवन में पहुँचकर कहतीं- 'सुमित्रा! अपने राम को लो। इन्हें तुम्हारी गोद के बिना निद्रा ही नहीं आती देखो, इन्होंने रो-रोकर आँखे लाल कर ली हैं।' श्री राम सुमित्रा की गोद में जाते ही सो जाते।

जैन पाऊमचरीय के अनुसार कमाल संकुलपुरा के राजा सुबंधु तिलक की पुत्री सुमित्रा थी। कौशल्या और कैकेयी से अलग उसका नाम रखा गया था। शायद वह किसी राजघराने से संबंध नहीं रखती होगी। जबकि कौशल्या का संबंध कौशल राज्य तथा कैकेयी का संबंध कैकेय राज्य से था। सुमित्रा नाम सुमंत्र से मिलता-जुलता है, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि वह सुमंत्र की पुत्री रही होगी।
प्रात सुमित्रा नाम जग जे तिय लेहिं सनेम। तनय लखन रिपुदमन सं पावहिं पति पद प्रेम।
      गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित नारी-अंक (बाइसवें वर्ष का विशेषांक) के अनुसार महाराज दशरथ की रानियों की संख्या कहीं तीन सौ साठ और कहीं सात सौ बतायी जाती है। जो भी हो महारानी कौशल्या पट्टमहिषी थीं और महारानी कैकेयी महाराज को सर्वाधिक प्रिय थीं। शेष में सुमित्रा ही प्रधान थी। महाराज छोटी महारानी के भवन में ही प्रायः रहते थे। सुमित्रा जी ने उपेक्षिता-प्रायः महारानी कौशल्या के समीप रहना ही उचित समझा। वे बड़ी महारानी को ही अधिक मानती थीं।
      कवि उद्भ्रांत के अनुसार सुमित्रा ने अपने दोनों पुत्रों- लक्ष्मण और शत्रुघ्न को माँ की भावनाओं से दूर रखने का निर्णय लिया। शायद उसे अपनी उपेक्षित अवस्था का पूरी तरह आभास हो गया था कि कौशल्या की तरह न तो वह राजमाता बन सकती है और न ही वह कैकेयी की तरह कूटनीतिज्ञ भी। शायद इसी नियति को भाँपकर उसने अपने बड़े पुत्र लक्ष्मण के सामने राम को आदर्श मानने तथा शत्रुघ्न को भरत की हर बात को शिरोधार्य करने का आदेश दिया। तभी तो उन्होंने लिखा है:-


मैंने सायास अपने पुत्रों को दूर रखा माँ की भावनाओं से;
लक्ष्मण के सामने
राम को आदर्श मानने का मंत्र रखा और
शत्रुघ्न को
भरत से संत भ्राता का हर वचन
शिरोधार्य करने का
माता की सीख को 
दोनों भाइयों ने
ग्रहण किया अंतरात्मा से।
लक्ष्मण के सामने राम को आदर्श मानने का मंत्र रखा और शत्रुघ्न को भरत से संत भ्राता का हर वचन शिरोधार्य करने का माता की सीख को
दोनों भाइयों ने ग्रहण किया अंतरात्मा से।


      जबकि कथा के अनुसार यह कहा जाता है पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त होने पर अग्नि के द्वारा प्राप्त चारु का प्रथम भाग महाराज ने कौशल्या को दे दिया। शेष का आधा भाग कैकेयी जी को प्राप्त हुआ। चतुर्थांश जो शेष था, उसके दो भाग करके एक भाग कौशल्या और दूसरा कैकेयी के हाथों में रख दिया। दोनों महारानियों ने अपने-अपने वे भाग सुमित्रा को दे दिए। समय पर माता सुमित्रा ने दो तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया। उनमें से कौशल्या जी के दिए गए भाग के प्रभाव से लक्ष्मण जी श्री राम के तथा कैकेयी के दिए गए भाग के प्रभाव से शत्रुघ्न भरत के अनुगामी हुए। इस प्रसंग की तुलना में कवि उद्भ्रांत के द्वारा सुमित्रा की मनोस्थिति का आकलन ज्यादा सटीक व उपयुक्त प्रतीत होता है। क्योंकि उन्हें अपने आपको आधुनिक युग की नारीगत अवधारणओं को अपने भीतर अनुभव कर उस अंतर्द्वन्द्व को प्रकट करना था। इसलिए उसकी महत्वाकांक्षाएँ फलीभूत होती नजर आती देख दोनों रानियों से किस तरह सही-सही व्यवहार बना रहे हैं। भले ही, कैकेयी और कौशल्या के प्रति मन में दबी हुई ईर्ष्या के भाव क्यों न हो। कवि उद्भ्रांत ने अपनी दूरदर्शिता के आधार पर सुमित्रा के इस निर्णय को सही ठहराने की कोशिश अवश्य की है कि चाहे अयोध्या का महाराज राम बने या भरत बने, दोनों ही अवस्थों में उनका एक पुत्र अवश्य महाराज का परम विश्वसनीय होगा और वह उसके दूसरे सहोदर का अनिष्ट नहीं होने देगा, किसी भी परिस्थिति में। इस तरह वह राजमाता भले ही न बने मगर राजमासी तो अवश्य बनी रहेगी। मगर उसे पता नहीं था कि कैकेयी की कुत्सित कूटनीति और लक्ष्मण के अटूट भ्रातृप्रेम के कारण उसकी बहू उर्मिला को चौदह वर्षों का एक लंबा एकांत वास भोगना होगा। इसका एक और दुष्परिणाम यह सामने आया कि राम के वनवास के प्रारम्भिक वर्षों में प्रजा जनों में भरत के प्रति तीव्र आक्रोश व असंतोष की लहर फैली, वरन् अपने प्राणों से भी प्रिय भाई से लंबे बिछोह के साथ-साथ राजलिप्सा के व्यर्थ आरोप का सामना करना पड़ा। इस तरह विश्लेषण करके कवि उद्भ्रांत ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ-साथ मानवीय सम्बन्धों पर भी दृष्टिपात किया है। मगर सुमित्रा के संदर्भ में एक बात फिर भी उनसे छूट गई लगती है क्योंकि सुमित्रा पूरी तरह से असमंजस की स्थिति में थीं। साहित्य में सुमित्रा
  • कौशल्या की अपेक्षा सुमित्रा प्रखर, प्रभावी एवं संघर्षमयी रमणी है । कैकेयी के वचनों की पालना एवं श्रीराम प्रभु के साथ जब लक्ष्मण अपनी माता से वन जाने की आज्ञा चाहते हैं तो वह कहती है कि जहाँ श्रीराम जी का निवास हो वहीं अयोध्या है । जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है । यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है । ‘मानस’ की उक्त पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-
अवध तहाँ जहँ राम निवासू । तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू ।
जौं पै सीय राम बन जाहीं । अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥
  • सुमित्रा ने सदैव अपने पुत्र को विवेकपूर्ण कार्य करने को प्रेरित किया । राग, द्वेष, ईर्ष्या, मद से दूर रहने का आचरण सिखाया और मन-वचन-कर्म से अपने भाई की सेवा में लीन रहने का उपदेश दिया, यथा-
रागु रोषु इरिषा मदु मोहू । जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू ।।
सकल प्रकार विकार बिहाई । मन क्रम वचन करेहु सेवकाई॥

इस प्रकार सुमित्रा इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि नवीन चेतना से सुसम्पन्न नारी है। वह एक आदर्श माँ के रूप में राम-लक्ष्मण को करणीय के लिए प्रेरित करती है ।
पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्री राम ने माता कौशल्या से तो आज्ञा ली, किन्तु सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने केवल लक्ष्मण को भेज दिया। माता-कौशल्या श्री राम को रोककर कैकेयी का विरोध नहीं कर सकती थीं, किंतु सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। यदि न्याय का पक्ष लेकर वे अड़ जातीं तो उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। लक्ष्मण द्वारा श्री राम के साथ वन जाने के लिये आज्ञा माँगने पर माता सुमित्रा जी ने जो उपदेश दिया है, वह उनके विशाल हृदय का सुन्दर परिचय है-

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हारा काजु कछु नाहीं॥
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोई करेहु इहइ उपदेसू॥
इस प्रकार माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को जीवन के सर्वोत्तम उपदेश के साथ अपना आशीर्वाद भी दिया। माता सुमित्रा का ही वह आदर्श हृदय था कि प्राणाधिक पुत्र को उन्होंने कह दिया कि 'लक्ष्मण! तुम श्री राम को दशरथसीता को मुझे तथा वन को अयोध्या जानकर सुखपूर्वक श्रीराम के साथ वन जाओ।'
  • सुमित्रा लक्ष्मण की माता के रूप में प्रसिद्ध होते हुए भी राम-कथा की प्राय: मूक पात्र हैं। उनके चरित्र का कथा-विकास में विशेष महत्त्व नहीं है और न उसमें चारित्रिक जटिलताओं की कोई सम्भावनाएँ हैं। यही कारण है कि राम-कथा सम्बन्धी अनेक प्रकरणों में उनका नामोल्लेख तक नहीं मिलता। लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के रूप में सुमित्रा की प्रसिद्धि के अतिरिक्त राम वन-गमन के अवसर पर अपने पुत्र को सहर्ष भेज देना उनकी चारित्रिक उदारता का प्रमाण है।
  • वाल्मीकि ने कहा है कि वे कौशल्या और कैकेयी दोनों को प्रिय थीं। यद्यपि उन्हें अपने पति दशरथ की उपेक्षाओं एवं तिरस्कारों के मौन संकेतों का सामना करना पड़ा है फिर भी वे अन्त तक उनकी शुभेच्छु बनी रहीं।
  • वाल्मीकि के उपरांत सुमित्रा के चरित्र में राम-कथा के कवियों ने कोई उल्लेखनीय विकास नहीं दिखाया।
  • 'रामचरितमानस' में उनके चरित्र में परम्परागत सौदार्य के अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताओं का भी कथन किया गया है, यद्यपि मानसकार भी उन्हें अधिक मुखर पात्र नहीं बना सके। मानसकार लक्ष्मण के प्रवास की अनुमति मांगने पर उनके पुत्र-प्रेम के साथ उनके साहस का भी परिचय देता है। यही नहीं, राम-कथा के अन्य अनुकूल पात्रों की भाँति तुलसीदास की सुमित्रा भी राम की भक्त हैं।
  • वन-गमन के अवसर पर वे लक्ष्मण को राम की सेवा-भक्ति का जो उपदेश देती हैं, उससे उनके आध्यात्मिक-चिन्तन का भी प्रमाण मिलता हैं।
  • वस्तुत: सुमित्रा के चरित्र के बहाने तुलसीदास ने दिखाया है कि मनुष्य जीवन की सार्थकता राम-भक्ति में ही है तथा जिस माता ने राम-भक्त पुत्र पैदा न किया, उसका जीवन पशु-तुल्य है। इसीलिए अपने पुत्र को राम के साथ वन भेजने में वे गर्व का अनुभव करती हैं।
  • 'मानस' की अपेक्षा 'गीतावली' में सुमित्रा के चरित्र में मातृसुलभ वात्सल्य की अभिव्यंजना अधिक हुई है।
  • विश्वामित्र के साथ वन जाने के अवसर पर वे राम-लक्ष्मण के कुशलक्षेम के लिए अत्यन्त चिन्तित होती हैं। दूसरी ओर जब उन्हें लक्ष्मण के शक्ति लगने का समाचार मिलता है, तब वे शत्रुघ्न को रण-क्षेत्र में जाने को प्रोत्साहित करते हुए एक वीरमाता के दर्प और गौरव को प्रकट करती हैं।
  • आधुनिक युग में मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत में सुमित्रा के चरित्र में इसी दर्प का चित्रण करते हुए उन्हें लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के सच्चे रूप में प्रस्तुत किया है। परन्तु साकेतकार उनके चारित्रिक विकास की उन सम्भावनाओं का निर्देश नहीं कर सका है, जिन्हें उसने कैकेयी के चरित्र में दिखाया है, इसी कारण कुछ आलोचकों को उसकी उर्मिला विषयक कल्पना में अपरिपक्वता के दर्शन होते हैं।
  • बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 'उर्मिला' नामक खण्डकाव्य में सुमित्रा के चरित्र-चित्रण की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया।

      इसके अतिरिक्त सुमित्रा जी के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं पर कवि उद्भ्रांत जी का ध्यान नहीं गया है। जैसे-

1)  चित्रकूट में माता सुमित्रा कैकेयी पर अपार रोष में जल रही जनक की महारानी अर्थात सीता की माँ महारानी सुनैना के मन को देवी जाम जुग जामिनी जीती कहकर उसके उद्विग्न मन को शांत कर उस प्रसंग को वही समाप्त कर देती है, जबकि कौशल्या यह काम नहीं कर पाती है। और सुनैना सुनिअ सुधा, देखि गरल के समान, कटु उक्तियाँ सुनाती जाती हैं। जब लक्ष्मण के मूर्छित होने की खबर सुमित्रा को मिलती है और उनकी जान बचाने के लिए संजीवनी लेकर जाते हुए हनुमान जी को भरत के बाण से आहत होकर गिरना पड़ता है उस समय सुमित्रा की विचित्र मनोदशा का वर्णन कवि की कल्पना से पता नहीं क्यों परे रह गया। "छिन-छिन गात-सुखात मातुके छिन-छिन होत हरे हैं।" अर्थात सुमित्रा यह सुनकर प्रसन्नता से खिल उठती है कि मेरे पुत्र लक्ष्मण राम के लिए युद्ध में वीरता पूर्वक लड़ते हुए बेहोश हो गए हैं। इनके इस कृत्य पर राम को एकाकी पाकर उनका मुख सूख जाता है। पर यह सोचकर, क्या चिंता, अभी शत्रुघ्न तो है ही।" माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।' महर्षि वसिष्ठ ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र शत्रुघ्न को भी लंका जाने की आज्ञा दे दी थी- तात जाहु कपि संग। और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे। इस सेवा की अग्नि में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।  इस प्रसंग को नजर अंदाज कर नारी के मन की संवेदना को स्पर्श नहीं कर पाए।




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