पाँचवाँ सर्ग- कौशल्या
पाँचवें सर्ग ‘कौशल्या’ में कवि उद्भ्रांत ने राम की माता कौशल्या के जीवन की घटनाओं के प्रसंग
का आत्मपरक विश्लेषण करते हुए तत्कालीन समसामायिक स्त्री-विमर्श के फलस्वरूप
परिलक्षित की जाने वाली नारी जीवन की समस्याओं, उनकी
आकांक्षाओं, बहुपत्नीत्व के कारण उत्पन्न सौतिया डाह, राजनीति
के कुटिल दाँव-पेंच के खेल, ‘त्रेता’
के नारी पात्रों में आसानी से देखे जा सकते हैं। परंतु अनमेल विवाह, अनिच्छा-विवाह, कन्या के साथ पण्यवस्तु जैसे व्यवहार,
पुरुष और स्त्री की शिक्षा में योग्यता का अंतर मानना, पुत्री को शिक्षा से वंचित रखना, पुत्री के जन्म को
नारी का अपराध मानना और इसके लिए उसको दंडित करना, नवजात
बालिका का केवल लड़की होने के कारण परित्याग करना, नारी का
सीमाशुल्क अधिकारी होना आदि बहुत से ऐसे कार्य हैं जो त्रेता युग की चिंता के
परिचित भाग नहीं हैं, उस काल की समस्याएँ नहीं हैं। कवि ने समसामयिकता से प्रभावित
होकर उस काल के पात्रों और घटना-प्रसंगों पर उन्हें आरोपित किया है।
कौशल्या नामकरण के मामले में कवि उद्भ्रांत ने
मौलिकता दिखाते हुए यह लिखा है कि पाक कला में कुशल होने के कारण अथवा कुश की तरह, भले ही
साधारण, मगर नुकीली दृष्टि, अडिग और
अविचल विचार रखने के कारण उनका नाम कौशल्या रखा गया, मगर
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित बाइसवें वर्ष का विशेषांक “नारी-अंक” में उन्हें दक्षिण के कौशल राज्य की
राजकुमारी बताया है, जिसका अपहरण रावण ने झंझावात पैदा करके
किया और उन्हें काष्ठ पेटिका में बंद करके समुद्र में फेंक दिया।
बाद में उनकी मुलाक़ात हिन्दी फिल्मी तरीके से राजा दशरथ से हो जाती है जो आगे जा कर परिणय सूत्र में बंध जाते हैं। इस अध्याय में कवि ने स्त्रीयोचित ईर्ष्या के भाव कैकेयी के प्रति दिखाए हैं। उनका दुख यह है कि राजा दशरथ हमेशा उसके साथ रहते है, और कैकेयी ने उन्हें अपने वश में कर लिया है। तभी तो ‘त्रेता’ में कवि ने लिखा है-
बाद में उनकी मुलाक़ात हिन्दी फिल्मी तरीके से राजा दशरथ से हो जाती है जो आगे जा कर परिणय सूत्र में बंध जाते हैं। इस अध्याय में कवि ने स्त्रीयोचित ईर्ष्या के भाव कैकेयी के प्रति दिखाए हैं। उनका दुख यह है कि राजा दशरथ हमेशा उसके साथ रहते है, और कैकेयी ने उन्हें अपने वश में कर लिया है। तभी तो ‘त्रेता’ में कवि ने लिखा है-
दुर्दिन तब सचमुच मुझे
अपने आते दिखे-
जब कैकेय नरेश की
अनिंद्य रूपवती कन्या कैकेयी
अयोध्या के राजमहल में आयी।
अपने आते दिखे-
जब कैकेय नरेश की
अनिंद्य रूपवती कन्या कैकेयी
अयोध्या के राजमहल में आयी।
अनिंद्य सुंदरी होने के साथ
परम निष्णात थी वह
वार्तालाप करने में
बड़ी बहन का आदर-सम्मान
उससे सदैव मैंने
उससे सदैव मैंने
प्राप्त किया प्रकटतः।
मगर
इसी अध्याय में आगे जाकर कवि उद्भ्रांत कैकेयी की वीरगाथा के बारे में अपनी आशंका
जताने के साथ-साथ मनुस्मृति की संहिताओं को मानने की व्यवस्था पर खेद प्रकट किया
है। वे कहते है-
हम
सबने सुनी जो कथा
यह दरबार में
वह थी कितनी सत्य
इसे जानने की कोई
विधि न थी हमारे पास,
और यद्यपि थी पूरी कथा ही अविश्वसनीय
किन्तु हमारे
महान पुरखे मनु महाराज द्वारा
निर्मित संहिता के अनुसार
राजा ईश्वर है
जनता के लिए और
स्त्री के लिए ईश्वर, पति है।
यह दरबार में
वह थी कितनी सत्य
इसे जानने की कोई
विधि न थी हमारे पास,
और यद्यपि थी पूरी कथा ही अविश्वसनीय
किन्तु हमारे
महान पुरखे मनु महाराज द्वारा
निर्मित संहिता के अनुसार
राजा ईश्वर है
जनता के लिए और
स्त्री के लिए ईश्वर, पति है।
राम
और सीता को चौदह वर्ष वनवास देने के आदेश के दारुण दुख से महाराज दशरथ के प्राण
निकल जाते हैं,
कैकेयी को यह सबसे बड़ा दंड प्राप्त होता है वैधव्य के रूप में तथा
सुमित्रा पश्चाताप करने लगती है, मगर कौशल्या के दुखों की
मात्र दोगुनी-तिगुनी घनीभूत वृद्धि होने के बावजूद भी वह साधारण मनुष्य के दुख की
तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाती है। कवि की पंक्तियाँ....
और मुझे देते हुए-
दोहरा-तिहरा दुःख घनीभूत
अनुमति व्यक्त होने की नहीं।
जननी राम की थी माँ।
मानव का साधारण दुःख भला
क्यों स्पर्श करता मुझे।
दोहरा-तिहरा दुःख घनीभूत
अनुमति व्यक्त होने की नहीं।
जननी राम की थी माँ।
मानव का साधारण दुःख भला
क्यों स्पर्श करता मुझे।
इस
प्रसंग पर आलोचक कंवल भारती अपनी राय रखते है कि कौशल्या को यह मालूम था कि विष्णु
अवतार के रूप में राम उसकी कोख से जन्म लेंगे, दशरथ की मृत्यु, चौदह वर्ष राम का वन निष्कासन, सीता अपहरण, अगर सब विधि के विधान के तहत पूर्व निर्धारित घटनाएँ हैं तो कैकेयी को लेकर उनके मन में अंतर्द्वंद्व क्यों
पैदा हुआ? क्या कवि कैकेयी के चित्रण में कहीं पक्षपात तो
नहीं कर रहे हैं। जैसा कि भगवान राम के वन जाते समय माता कौशल्या ने अपनी मनस्थिति
को इस तरह प्रस्तुत किया था। स्त्रियों के लिये सौतेली पत्नी द्वारा किये गए अपमान
से बढ़कर कोई कष्ट नहीं। मैं तो कैकेयी की दासी की भाँति हूँ। मेरे सेवक-सेविकाएँ
कैकेयी से सदा भीत रहती हैं और कैकेयी के सेवक भी मुझे कष्ट देते हैं।
एक बात और यहाँ उल्लेखनीय है कि कवि ने पूरी
ईमानदारी के साथ तत्कालीन राजा महाराजाओं की देह-आसक्ति को उभारने के साथ-साथ
मानवीय धरातल पर स्त्रियों के चरित्र-चित्रण का अच्छा-खासा मनोविश्लेषण किया है। उन्होंने
सत्य को सामने लाया है कि देह-लोलुप राजा-महाराजा और सामंत नारी के सौंदर्य के
सामने किस तरह अपने राज्य की उपेक्षा करते थे।
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